रक्खा था। मेरे साथी सभी डूब कर मर गये । मैं ही अधमरा
सा होकर किसी किसी तरह किनारे आ लगा ।
भोजन, वस्त्र, आश्रय और अस्त्र से रहित होकर मैं अपने चारों ओर मृत्यु की भीषण मूर्ति देखने लगा । वन्य पशुओं के ग्रास से या असभ्य निर्दय मनुष्य के हाथ से या क्षुधा की ज्वाला से अपनी अनिवार्य मृत्यु की बात सोच कर मैं अपने जीवन से हताश होगया था । रात को मैं जंगली पशुओं के भय से पेड़ पर चढ़ कर सो रहा । उस अवस्था में भी सारी रात पानी बरसता ही रहा, तो भी मैं खूब गाढ़ी नींद में सोया ।
पहिली अक्तूबर--मैंने सबेरे उठकर देखा, हम लोगों का भग्न जहाज़ ज्वार में उपलाता हुआ स्थल भाग के समीप आ लगा है । यह देखकर मेरे मन में हर्ष और विषाद दोनों हुए । हर्ष का कारण यह था कि हवा कुछ थम जाने पर मैं जहाज़ पर से अपनी आवश्यकता के अनुसार चीजें ले आ सकूँगा । विषाद का कारण यह था कि हम लोग नाव पर न चढ़ कर यदि जहाज़ ही पर रहते तो सब के सब बच जाते ।
पहिली अक्तूबर से २४ वीं अक्तूबर तक--इन कई दिनों में मैं वर्षा के पानी में भीग भीग कर, ज्वार के समय, बेड़ा तैयार करके जहाज़ पर से बराबर चीज़ वस्तु ढोता रहा ।
२० अक्तूबर को मेरा बेड़ा उलट जाने से सब चीजें पानी में गिर गई और मैं भी गिर पड़ा । भाटे के समय मेैं प्रायः वस्तुओं को निकाल लाया ।
२५ अक्तूबर—-जहाज़ टूट फूट कर ग़ायब हो गया । दिन रात पानी बरसता रहा ।