यहाँ मेरा माल से भरा हुआ बेड़ा डूबने पर हुआ । ऐसा होता तो मैं मारे दुःख और शोच के छाती फाड़ कर मर जाता । वहाँ के किनारे की अवस्था से मैं बिलकुल अपरचित था । किधर क्या है, यह कुछ भी मुझे मालूम न था । प्रवाह क्रम से आगे जाते-जाते बेड़ा ऐसी जगह पहुँच गया कि उसका एक हिस्सा बालू के टीले पर चढ़ गया और दूसरा पार्श्व नीचे अगाध जल पर गया । बेड़े के पिछले हिस्से पर अधिक दबाव पड़ जाने के कारण वह पानी में धँस गया । ज़रा और दबाव पड़ते ही इतने कष्ट से संग्रह किया हुआ मेरा सब सामान पानी में गिर जाता । मैं तुरन्त जी पर खेल कर सन्दूकों को पीठ से ठेले ठेल खेल कर कुछ ऊपर की ओर खिसका लाया और बेड़े को बालू से हटाने की चेष्टा करने लगा । मेरे प्राणपण से ज़ोर लगाने पर भी बेड़ा अपनी जगह से ज़रा भी न हिला । मैंने पीठ के बल से सन्दूकों को ठेल ठेल कर रक्खा था, इससे मेरी पीठ की नसें जकड़ गई थीं । मैं अच्छी तरह हिल डोल भी नहीं सकता था । मैं सारे बदन का ज़ोर पीठ पर लगा कर सन्दूक से लग कर आध घंटे तक बैठा रहा । उतनी देर में ज्वार का जल क्रम क्रम से बढ़ कर बेड़े को विषम अवस्था से सम भाव में ले आया । बेड़ा सीधा होकर उस रेतीली भूमि से छूट कर उपलाने लगा तब मैं लग्गी से ठेल कर उसे धीरे धीरे खेता हुआ आगे की ओर बढ़ा ले चला । खाड़ी के भीतर जा करके मैंने एक नदी का मुहाना देखा । ज्वार का जल अभी खूब वेग से ऊपर की ओर चढ़ रहा था । मैं साकांक्ष दृष्टि से मुहाने के आस पास बेड़ा लगाने की जगह देखने लगा । मैं स्थल भाग की ओर बहुत दूर तक जाना नहीं चाहता था । कारण
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भग्न ज़हाज का दर्शन।