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राबिन्सन क्रूसो ।


कर मेरे जीवन के भविष्य अशुभ और आपत्ति की ही ओर प्रधावित होने लगी।

मेरे पिता ज्ञानी और गम्भीर प्रकृति के मनुष्प थे। उन्होंने मेरा कठिन उद्देश्य और अभिप्राय समझ कर एक दिन सवेरे मुझको अपनी बैठक में बुलाया। वे बातव्यथा से पीड़ित होकर खाट पर पड़े थे। वे मुझे अपने पास बैठा कर भाँति भाँति के सुन्दर और समीचीन उपदेश देने लगे। उन्होंने अत्यन्त गम्भीर तापूर्वक मुझसे पूछा—एकमात्र भ्रमण लालसा के अतिरिक्त क्या स्वदेश का सुख और पिता के आश्रय की सुविधा छोड़ कर तुम्हारे विदेश जाने का और भी कोई कारण है? अपने देश में तुम्हारा -खच्छन्द से निर्वाह हो सकता है, तुम अपने देश में रह कर परिश्रम और अध्यवसाय के द्वारा मज़े में आर्थिक उन्नति भी कर सकोगे। किन्तु विदेश में तो किसी बात का कुछ निश्चय नहीं। सभी अनिश्चित है। वहाँ न किसी से जान पहचान, न संकट के समय कोई सहायक होगा। जो लोग अपने देश में किसी तरह अपनी दशा की उन्नति नहीं कर सकते अथवा जिनकी उच्च आकांक्षा अपने देश में फलित नहीं होती वही लोग प्रायः विदेश जाते हैं। तुम्हारी अवस्था इन दोनों से भिन्न है, तो फिर तुम क्यों विदेश जाना चाहते हो? हम मध्यम श्रेणी के मनुष्य हैं। न हम दरिद्रता के दुःख से दुखी हैं, न धनाढ्य के भोगविलास के दम्भ से चंचल हैं। यह जो दारिद्रय और ऐश्वर्य को मध्यवर्तिनी अवस्था है, इस अचिन्त्य अवस्था की जो सुख स्वच्छन्दता है, उसे देख राजा महाराजों का भी जी ललचाता है। विद्वान लोगों ने मुक्त कण्ठ से इस अवस्था की प्रशंसा की है।