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क्रूसो का स्थलमार्ग से स्वदेश को लौटना।

हम लोगों ने आपस में चन्दा करके चीनी सैन्य को पुरस्कार देकर बिदा कर दिया। रास्ते में कई एक बड़ी बड़ी नदियाँ और बड़े बड़े बालू के मैदान पार करने पड़े। १३ वीं अपरैल को हम लोग रूस के राज्य में पहुँचे।

संसार में इतना बड़ा राज्य दूसरा नहीं है। इसके पूरब चीन सागर, उत्तर में ध्रुव महासागर, दक्षिण में भारत समुद्र और पच्छिम में बाल्टिक समुद्र है।

इस देश के लोग बड़े असभ्य होते हैं। एक जगह देखा कि गाँव के लोग बड़े समारोह से भगवान की पूजा कर रहे है। भगवान् एक पेड़ का तना काट कर बनाये गये थे। उस काष्ठनिर्मित मूर्ति को ही वे लोग भगवान् मान कर आराधना करते थे। मूर्ति भी सुन्दर नहीं, साक्षात् यमदूत सी भयङ्कर और भूत सी देखने में कुरूप थी। विचित्र आकार का मस्तक था। उसके दोनों तरफ़ भेड़े के सींग की तरह दो बड़े बड़े कान थे। करताल की तरह आँखे, खाँड़े के सदृश नाक और चौकोन मुँह के भीतर सुग्गे की चोंच की तरह टेढ़े दाँतो की पंक्ति थी। ऐसी शकल की मूर्ति देख कर किसे श्रद्धा उत्पन्न होगी? उस पर भी उसके हाथ पैर नहीं। सिर पर चमड़े की टोपी थी। उसमें दो सींग जड़े थे। सम्पूर्ण कलेवर चमड़े से ढका था। यही उनके आराध्यदेव थे। इसीका वे पूजोत्सव मना रहे थे।

यह जूजू नामक देवता गाँव के बाहर प्रतिष्ठित था। मैं इसे देखने गया। सोलह सत्रह स्त्री-पुरुष उस मूर्ति के सन्मुख धरती में पड़े थे। मुझको आते देख वे लोग कुत्ते की तरह भों भों करके मेरी ओर दौड़े। तीन पुरोहित क़साई की