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चोरी के जहाज़ की सद्गति।

अच्छा यही सही, मैं देशभ्रमण कर पाऊँ तो फिर मुझे क्या चाहिए। एक बार जापान देश भी तो देख आऊँ। किन्तु मेरे साझेदार मुझसे अधिक बुद्धिमान् थे। वे मुझको इस बद- कार जहाज़ पर किसी तरह भी जाने देना नहीं चाहते थे। मैं सोच ही रहा था, कि अब क्या करना चाहिए इतने में वही नवयुवक मुंशी, जिसे मेरा भतीजा मेरे पास छोड़ गया था, मेरे पास आकर कहने लगा,―महाशययदि आप मुझ पर विश्वास करके यह जहाज़ मेरे ज़िम्मे कर दें तो मैं एक बार वाणिज्य करके देखूँ। यदि मैं जीते जी इँगलैण्ड लौटूँगा तो आपका जो कुछ मेरे ज़िम्मे पावना निकलेगा वह आपको देकर हिसाब समझा दूँगा।

मैंने अपने साझी अँगरेज़ से इस विषय में परामर्श किया। उन्होंने कहा-जहाज़ बड़ा अभागा है। उस पर अब हमें और आपको पैर रखना लाज़िम नहीं। आपका मुंशी यदि इस जहाज़ को लेकर कुछ व्यवसाय करना चाहता है तो भले ही करे। उसमें हम लोगों की हानि ही क्या है? हम लोग जब राम राम करके कुशलपूर्वक इँगलैंड पहुँँच जायँगे और वह भी यदि नफ़ा उठा कर वहाँ लौट आवेगा तब उस लाभ का आधा उसका होगा और आधा हमारा और आपका।

इस शर्त पर उसके साथ लिखा-पढ़ी हो गई। वह जहाज़ लेकर जापान गया। जापानी सौदागर ने उसे भाड़ा चुकाकर फ़िलिपाइन और मैनिला आदि टापुओं में बनज करने भेजा। वह जापान का माल टापुओं में ले जाकर बेचता और टापुओं से मसाला लाकर जापान में बेचता था। ईस प्रकार ख़रीद-फ़रोख़्त करके मैनिला से उसने