कम्बोडिया नदी के किनारे जहाज़ लगा कर उसकी मरम्मत की तैयारी की जा रही थी। इसी अवसर पर एक दिन एक अँगरेज़ ने आकर मुझसे कहा-"महाशय! आप मेरे अपरिचित हैं तथापि मैं आपसे एक ऐसी बात कहना चाहता हूँ जिससे आपका विशेष उपकार होगा।" मैं उसका इङ्गित, आकार और चेष्टा देख कर विस्मित हो उसके मुँह की ओर चुपचाप देखता रहा। सचमुच ही मैंने उसको कभी कहीं नहीं देखा था। वह मुझसे क्या कहेगा? मैंने पूछा "एकाएक आपको परोपकार की इच्छा इतनी प्रबल क्यों हो उठी?" उसने कहा-"मैं देखता हूँ कि आप बड़ी विपत्ति में फँसे हैं पर आपको कुछ मालूम नहीं कि क्या हो रहा है।" मैंने कहा-विपत्ति की बात तो मैं भी प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि मेरे जहाज़ में पानी आ रहा है। इसके पेंदे में कहाँ छेद है, यह खोजने से भी नहीं मिलता। इससे कल जहाज़ को किनारे लगा कर देखूँगा कि इसमें कहाँ छेद है।
उसने कहा-"छेद हो या न हो,-खोजने से वह मिले चाहे न मिले,-जहाज़ को कल किनारे लगाना बुद्धिमानी का काम न होगा। क्या आप नहीं जानते कि दो बड़े अँगरेज़ी जहाज़ और तीन पोर्चगीज़ जहाज़ यहाँ से बहुत करीब ही आ लगे हैं?" मैंने कहा-"लगे रहे, इससे मुझे क्या?" उस व्यक्ति ने कहा-"जो लोग आपकी भाँति मतलबी काम में लगे रहते हैं वे आसपास की कोई खोज-खबर न रखकर निश्चिन्त रहे, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्या आप अपने मन में यह समझते हैं कि आप लोग उनका मुकाबला कर सकेंगे?" उसकी ऐसी भेद-भाव से भरी ऊटपटाँग बाते सुन कर मुझे बड़ा कुतूहल हुआ। मैंने कहा-"भाई, साफ़ साफ़