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राबिन्सन क्रूसो।


एक मिस्त्री और तीन नाविक भी मिल गये। बाकी भारतीय नाविक नियुक्त कर लिये गये।

हम लोग सुमात्रा टापू की सरहद से होते हुए स्याम देश में पहुँचे। वहाँ हम लोगों ने वस्तुएँ बेच कर अफ़ीम और कुछ अर्क़ ख़रीदे। उस समय चीन देश में अफ़ीम की बड़ी खपत थी। आठ महीने वाणिज्य करने के बाद हम फिर भारत को लौट आये। इन देशों में तिजारत कर के द्रव्योपार्जन की सुविधा और विलक्षण लाभ देख कर मेरा जी बहुत खुश हुआ। मेरी उम्र यदि एक चौथाई अर्थात् १५, २० वर्ष और कम होती तो मैं इस देश को छोड़ कर द्रव्य खोजने के लिए अन्यत्र कहीं न जाता। किन्तु मेरे ऐसे साठ वर्ष के बुड्ढे और प्रचुर धन-शाली व्यक्ति को केवल लाभ के सम्बन्ध से इन देशों पर विशेष मोह न था। क्योंकि मैं तो रुपया कमाने के लिए आया नहीं था। देश देखने ही के लिए मेरा आना हुआ था। सो इन नये देशों के दर्शन हो गये। अब देश लौटने के लिए जी अकुलाने लगा। देश में रहने से बाहर जाने के लिए चित्त व्यग्र होता था और बाहर आने पर देश जाने के लिए जी में छटपटी लगी रहती थी। मेरे साथी अँगरेज़ पूरे व्यवसायी थे। ये अपने व्यवसाय के पीछे दिन-रात हैरान और परेशान रहते थे। जिधर कुछ अधिक लाभ देखते उधर ही दौड़ पड़ते थे। मेरा खयाल केवल घूमने-फिरने की ओर था। एक स्थान को दोबारा देखना मेरी आँखों में खटकता था। मेरे साझी ने मुझसे यह प्रस्ताव किया कि अब की बार मसाला टापू में जाकर एक जहाज़ भर लौंगे लाकर व्यवसाय किया जाय। यद्यपि वाणिज्य-व्यवसाय में मेरा पूर्ण उत्साह नहीं था तथापि "बैठे से बेगार भली" की कहावत चरितार्थ करना उचित