पर जाने की मनाही है।" इस अतर्कित संवाद से जो मेरे मन में क्षोभ और आश्चर्य हुआ, वह कहने का नहीं। मैंने पूछा-"तुमसे यह किसने कहा है"? उस नाविक ने कहा-माँझी ने।
मैंने उससे और कुछ न पूछ कर जहाज़ के भण्डारी को जहाज़ पर भेज कर अपने भतीजे को यह ख़बर दी। किन्तु यह ख़बर न देने से भी काम चल जाता। मेरे भतीजे को यह हाल पहले ही मालूम हो चुका था। जहाज़ से उतर कर मैं ज्योंही स्थल में पाया त्योंही माँझी प्रभृति प्रधान नाविकों ने कप्तान के पास जाकर मेरे ऊपर नालिश की और कहा, हम लोग उस आदमी के साथ कभी एक जहाज़ पर न रहेंगे। अच्छा हुआ कि वह इस जहाज़ पर से आप ही उतर गया, नहीं तो हम लोग उसे जबर्दस्ती इस जहाज़ पर से उतार देते। यदि आप उसका पक्ष ले कर हम लोगों की प्रार्थना पर ध्यान न देंगे तो हम लोग सबके सब जहाज़ छोड़ कर चले जायेंगे। माँझी का इशारा पा कर सभी नाविक एक स्वर से बोल उठे-हाँ, माँझी का कहना सही है।
जहाज़ का कप्तान (मेरा भतीजा) बड़ा ही समझदार और दीर्घदर्शी था। उसने इस उत्कट प्रस्ताव से क्षुब्ध होने पर भी गम्भीर-भाव धारण कर के उन लोगों से कहा "इसका जवाब मैं सोच कर दूँगा। जब तक उनसे इस विषय में सलाह न कर लूँगा तब तक तुम लोगों से कुछ न कह सकूँगा।" उसने उन लोगों के इस प्रस्ताव की अयुक्तता दिखलाने की कुछ चेष्टा की किन्तु नाविको ने कप्तान के मुँह के सामने ही प्रतिज्ञा कर के स्पष्ट रूप से कह दिया कि