मानो मैं जिब्राल्टर मुहाने की ही ओर जा रहा हूँ । जिसके
हृदय में किञ्चित् भी बुद्धि का लेश होता वह इसी तरह
सोचता, क्योंकि कौन ऐसा होगा जो अपनी खुशी से
असभ्य देश में रह कर नरशत्रु काफ़िर या हिंस्त्र जन्तु के मुँह
में पड़ने की इच्छा करेगा ?
मैं सायंकाल के अन्धकार में अन्तर्हित होने की इच्छा से
नाव की गति को घुमा फिरा कर किनारे के आस पास से
होकर दक्खिन और पूरब की ओर जाने लगा । उस समय
हवा खूव ठिकाने से बह रही थी, समुद्र भी स्थिर था; मेरी
नाव पाल के सहारे चल पड़ी । दूसरे दिन पिछले पहर जब
मैंने समुद्र का तट देखा तब मैं शैली बन्दर से क़रीब
डे़ढ़ सौ मील दक्खिन ओर जा पड़ा था । वहाँ एक भी
मनुष्य मेरे दृग्गोचर न हुआ । इससे जान पड़ा कि मैं मरक्को
के सुलतान या निकटवर्ती ऐसे ही किसी राजा के राज्य से
बाहर निकल आया हूँ । मैं किस मुल्क में आ पहुँचा,
इसका कुछ ठिकाना नहीं । मूर लोगों के हाथों फिर बन्दी
हो जाने का भय मेरे हृदय में यहाँ तक प्रबल था कि कहीं पर
रुकने या स्थल में ठहरने की मेरी हिम्मत न पड़ती थी ।
वायु का क्रम पाँच दिन तक बहुत अच्छा था । मैं भी पाँच
दिन तक बराबर चलता ही रहा । नाव का पाल भी इस
बीच में कहीं नहीं उतारा । पाँच दिन के बाद हवा प्रतिकूल
होकर दखनही बहने लगी । तब मैंने निश्चय किया कि यदि
कोई जहाज़ मेरे पकड़ने के लिए पीछे आता भी होगा तो
प्रतिकूल वायु के कारण उसकी गति रुद्ध होगी वा उसे सन्तोष
करके लौट जाना पड़ेगा । अतएव अब लंगर डालने में कोई
क्षति नहीं । यह सोच कर मैंने एक छोटी नदी के मुहाने में