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उपनिवेश में समाज और धर्म-संस्थापन।

पुलकित हो गया। उनकी आँखों से आँसू बह चले। उन लोगों ने एक वाक्य से स्वीकार किया कि वे लोग मुझको अपने पिता के तुल्य समझते हैं; वे लोग आजीवन मेरी अधीनता स्वीकार करके इसी द्वीप में मेरी प्रजा बन कर रहेंगे। बिना मेरी आज्ञा पाये कोई इस टापू का त्याग न करेगा।

वस्तु-वितरण के अनन्तर मैंने दर्जी, लुहार, बढ़ई आदि मिस्त्रियों को उन लोगों के सिपुर्द कर दिया। दर्ज़ी ने हर एक को एक एक कुर्ता सी दिया और स्त्रियों को सिलाई के कामों में खुब निपुण कर दिया। बढ़ई ने हम लोगों की बनाई टेबुल, कुर्सी आदि वस्तुओं को एक ही घड़ी में सुन्दर और सुडौल बना दिया।

इसके बाद मैंने अपनी प्रजा को खेती के उपयुक्त हथियार बाँट दिये। हरएक को एक एक कुदाल, खुरपी और खनती दी। बढ़ई के उपयुक्त हथियार विभक्त न करके एक बढ़ई रख दिया। मैं छुरी, कैंची और लोहे की छड़ें आदि बहुतायत से लाया था। वे वस्तुएँ साधारण भण्डार में रख दी गई। जिसे जब जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, उसे मिलेगी। उन लोगों के लिए मैं लोहा इसलिए बहुत लाया था, कि लुहार उससे उनके प्रयोजन की वस्तु बना देंगे।

इसके बाद मैंने हरएक को एक एक बन्दूक़ और बहुत सी गोली-बारूद दी। उन्हें पाकर वे लोग बहुत खुश हुए। अब वे हज़ारों असभ्यों का मुकाबला कर सकेंगे।

जिस युवक को और उसकी दासी को मैंने भूखों मरने से बचाया था, वे मेरे पास आकर कहने लगे कि "हम अब भारतवर्ष क्या करने जायँगे। आपकी आज्ञा हो तो हम इसी