कर उन दोनों अँगरेज़ों का हृदय भी जलने लगा। असभ्यगण धीरे धीरे जङ्गल और झाड़ी में गृहवासियों को खोजने लगे। असभ्यों के झुंड को आगे बढ़ते देख कर अँगरेज़ कुछ और पीछे हट गये। जङ्गल में एक बहुत मोटा पेड़ था जो सूख कर खोखला हो गया था। वे दोनों अँगरेज़ उसीके भीतर छिप कर असभ्यों को देखने लगे। कुछ ही देर बाद उन्होंने देखा कि दो असभ्य उनकी ओर दौड़े आ रहे हैं। उनकी चेष्टा देखने से यही मालूम होता था कि वे गुप्तस्थान का पता पाकर अँगरेज़ों को पकड़ने के लिए पा रहे हैं।
यह सोच कर अँगरेज़ बहुत घबराये। वे भागे या वहीं रहे, इसकी चिन्ता हुई। भागे ही तो कहाँ जायँ? असभ्य लोग चारों ओर जंगल में फैल गये थे। भागने से अधिक संभव था कि उनके सामने जा पड़ते। यह सोच-विचार कर उन्होंने जहाँ थे वहीं स्थिर रहना उचित समझा। यदि किसी तरह की गड़बड़ देखने में आती तो वे पेड़ पर चढ़ जाते।
अग्रवर्ती दोनों असभ्य उनके पास से होकर आगे बढ़ गये। इससे मालूम हो गया कि उन्होंने अँगरेज़ों को नहीं देखा। किन्तु उनके पीछे तीन आदमी और उनके भी पीछे के पाँच आदमी बिलकुल सामने उसी पेड़ की ओर आने लगे। तब अँगरेज़ भरी हुई बन्दूक का लक्ष्य ठीक करके उनको अपने समीपवर्ती होने की अपेक्षा करने लगे। जब वे असभ्य कुछ और अग्रसर हुए तब अँगरेज़ों ने पहचाना कि उनमें एक वही था जो पहले बन्दी हुआ था। उसको देखते ही अँगरेज़ों के हृदय में एकाएक आग बल उठी। उन्होंने निश्चय किया