में हथकड़ी डाली गई तब वे बहुत भयभीत हुए। उन्होंने समझा कि "अब की बार अपने विजयी के भोज में हमारा कबाब बने बिना न रहेगा।" उनका इस तरह सोचना स्वाभाविक ही था। मनुष्य दूसरे को बहुत करके अपने ही जैसा समझता है। द्वीप-निवासियों ने उन्हें समझा-बुझा कर निर्भय कर दिया।
बन्दियों को वे लोग मेरे कुञ्जभवन में ले गये। उन्होंने उन बन्दियों को किले का पता न बता कर अच्छा ही किया था। क्योंकि दो-एक दिन के बाद उनमें से एक आदमी काम करते करते न मालूम किस तरह सब की नज़र बचा कर जङ्गल में भाग गया। बहुत खोजने पर भी वह कहीं न मिला। कई दिन पीछे असभ्यों का एक दल नाव पर चढ़ कर द्वीप में नरमांस खाने आया था। वह उन्हीं लोगो के साथ देश लौट गया होगा। यदि यह बात सच है तब तो सर्वनाश होना ही सम्भव है। असभ्य लोग टापू में मनुष्य की गन्ध पा कर राक्षस की भाँति झुंड के झुंड आकर अनर्थ करेंगे। असंख्य राक्षसों का मुकाबला यहाँ के इने गिने साधारण अधिवासी कैसे कर सकेंगे? कुशल इतना ही है कि वे किले का हाल नहीं जानते और बन्दको की गोलियों की मार के सामने वे लोग देर तक ठहर सकेंगे, इसकी भी संभावना नहीं है।
डेढ़-दो महीने बाद एक दिन सूर्योदय के साथ साथ छः नावों पर असभ्य लोग आकर इस द्वीप में उतरे। वे कुल पचास-साठ आदमी होंगे। उन्होंने कुञ्जभवन ही की ओर नावें लगाईं। उस कुञ्जभवन में दो अँगरेज़ रहते थे। असभ्य लोग किनारे से कोई आध मील पर थे तभी अँगरेज़ों ने उनको