लोगों को न्यू फौन्डलेन्ड के किनारे उतार दिया। सभी लोग उतर गये। केवल वह युवा पुरोहित हम लोगों के साथ भारत जाने को रह गया और चार व्यक्ति नाविक का काम करने की इच्छा से हमारे जहाज़ पर नियुक्त हुए।
इसके बाद बीस दिन तक हम लोग अमेरिका के द्वीपपुञ्ज के सामने से जाने लगे। एक दिन फिर एक घटना के कारण परोपकार का सुयोग मिल गया। उस दिन मार्च की उन्नीसवीं तारीख़ थी। हम लोगों ने देखा कि एक जहाज के सभी मस्तूल टूटे हैं, उसके जहाजियों ने विपत्ति के संकेत-स्वरूप तोप की आवाज़ की। हम लोग उसके पास गये।
वह जहाज़ इँगलेन्ड के ब्रिस्टल शहर को जा रहा था। रास्ते में सख्त तूफ़ान आने के कारण उसकी ऐसी दुर्दशा हुई थी। जहाज़ इस प्रकार अकार्य-भाजन होकर नौ सप्ताह से समुद्र में इतस्ततः घूम रहा था। उन लोगों के पास खाद्य-सामग्री भी न थी। निराहार रहने के कारण वे मृतप्राय हो रहे थे। एक मात्र जीवन का अवलम्ब यही था कि पानी बिलकुल खर्च न हुआ था। प्राधा पीपा मैदा था और कुछ चीनी थी। उस जहाज़ पर एक युवक यात्री था। उसके साथ उसकी माता और दासी भी थी। उसके पास खाने को कुछ न था, खाद्य वस्तु बिलकुल निबट चुकी थी। नाविक गण स्वयं खाद्य के अभाव से कष्ट पा रहे थे इस लिए उन पर दया कर के कोई कुछ खाने को न देता था। इससे उन तीनों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो गई थी।
मैंने झट पट पहले उनके खाने की व्यवस्था कर दी। मैंने अपने भतीजे को एकदम दबा रक्खा था। वह मेरी आज्ञा