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दूसरी बार की विदेश-यात्रा


होता है, कि आपही लोगों के उद्धारार्थ ईश्वर की प्रेरणा से हम लोग इधर आ पड़े। अब हम लोग इच्छा रहते भी गन्तव्य पथ को न छोड़ सकेंगे। किन्तु हम लोग इतना कर सकते हैं कि रास्ते में यदि कोई ऐसा जहाज़ मिल जायगा जो देश लौट कर जाता होगा तो उस पर आप लोगों को चढ़ा देंगे।

मेरे प्रस्ताव का प्रथम अंश, अर्थात् उन लोगों से हम कुछ न लेंगे, सुन कर उन्होंने अत्यन्त आह्लादित होकर हम लोगों को धन्यवाद दिया। किन्तु अन्य अंश सुन कर वे बहुत डरे। हम उन लोगों को भारत की ओर ले जायँगे, यह उन लोगों के लिए बड़ी विपत्ति-वार्ता थी। वे हम लोगों से अनुरोध करने लगे कि जब आप लोग इतना पश्चिम आही चुके हैं तो कुछ ही दूर और हट कर जाने से फ़ौन्डलेन्ड देश तक पहुँच जायँगे। वहाँ से हम लोग किसी तरह कनाडा, जहाँसे आये थे, जा सकेंगे।

मैंने इस प्रस्ताव को युक्ति-संगत समझ करके स्वीकार कर लिया। कारण यह कि इतने लोगों को सुदूरवर्ती पश्चिम देश में ले जाना केवल उन लोगों के प्रति अत्याचार ही न होगा बल्कि उनके साथ हम लोगों का सर्वनाश होना भी संभव है। इतने लोगों को प्राहार पहुँचाने ही में मेरा खाद्यभण्डार खाली हो जायगा।

हम लोगों ने रास्ते में कई यूरोपगामी जहाज़ देखे। उनमें दो फ़्रांस के थे। किन्तु उन लोगों को प्रतिकूल वायु के कारण रास्ते में बहुत देरी हो गई है। खाद्य-सामग्री घट जाने के भय से वे लोग और यात्रियों को अपने जहाज़ पर चढ़ा लेने को राजी न हुए। तब हमने लाचार होकर उन

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