रक्खे हुए रुपये काले पड़ गये थे, पर बीस वर्ष के दरमियान कभी उनको एक बार भी देखने की आवश्यकता न हुई थी। अब मैं कुछ कुछ समझने लग गया था कि मनुष्य-जीवन का उद्देश केवल आहार-निद्रा और विषय-भोग ही नहीं है, प्रत्युत आत्मा की उन्नति ही उसका चरम उद्देश है। उसी के सहायतार्थ देह रक्षा भी आवश्यक है। अर्थ की अपेक्षा धर्म ही मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पत्ति है। किन्तु इस सम्पत्ति की रक्षा अब मुझसे कौन करावेगा? मेरी प्रिय शिष्या और सचिव मुझे अकेला छोड़ चली गई। मैं कर्णधार-विहीन नौका की भाँति धन-दौलतरूपी तूफान में पड़ कर संसार में डूबता-उतराता हूँ।
विदेश-भ्रमण की चिन्ता फिर मेरे शान्त निरापद भाव से-गृह वास के सुख और खेती-बाड़ी के आनन्द को भुला कर-बड़ी निर्दयता के साथ मुझे बाहर की ओर खींचने लगी। बहरों के लिए संगीत की तरह, बिना जीभ वाले के लिए स्वादिष्ट खाद्य की तरह मेरे लिए मेरे घर का सुख नितान्त निरर्थक सा अँचने लगा। कई महीने बाद मैं अपना घर द्वार भाड़े पर दे कर लन्दन गया।
लन्दन में भी मेरा जी न लगा। वहाँ भी चित्त को चैन न मिला। बिना कुछ रोज़गार के जीवन का बोझ लेकर घूमना कैसा कष्ट-दायक है, यह वही समझ सकेंगे जो चिरकाल से कर्मनिष्ठ हैं और जिनका जीवन-समय कभी व्यर्थ नहीं जाता। आलसी होकर एक जगह बैठा रहना जीवन की हेयतम अवस्था है। वह जीवन के लिए एक बड़ी लाञ्छना है। लन्दन में बैठकर आलसी की तरह जीवन बिताने की अपेक्षा निर्जन द्वीप में रह कर जब मैं छब्बीस दिन में एक तख्ता तैयार करता था तब वह मेरे लिए कहीं बढ़कर सुख का समय था।