सर्वस्व रख कर कहा-"मित्रवर, इन सब घटनाओं का आदिकारण यद्यपि ईश्वर है तथापि आप ही के आशीर्वाद और कृपा से मुझे इतनी समृद्धि प्राप्त हुई है, इसलिए मैं पहले आपकी पूजा करना आवश्यक समझता हूँ।" यह कह कर मैंने जो उनसे पाँच सौ रुपया लिया था वह लौटा दिया और उनके जिम्मे जो कुछ मेरा पावना था सब छोड़ दिया। इसके बाद उनको अपनी ज़मीदारी का मैनेजर और प्रतिनिधि नियुक्त किया।
इस प्रकार उनका प्रत्युपकार करके में सोचने लगा कि इतना रुपया लेकर मैं क्या करूँ। जितना धन मुझे दरकार था उससे कहीं अधिक मिला। इसकी रक्षा की चिन्ता ने मेरे चित्त को चञ्चल कर दिया। इस अवस्था की अपेक्षा मेरा एकान्तवास कहीं अच्छा था। वहाँ अपनी आवश्यकता के अनुसार सब चीज़ थीं। वहाँ जो कुछ था उससे मज़े में काम निकल जाता था। अब आवश्यकता से बढ़ कर जो इतनी चीज़ मेरे हाथ भाई हैं उन्हें लेकर क्या करूँ। इन प्रयोजनाधिक वस्तुओं की रक्षा करना मेरे लिए भारी जंजाल होगया। यहाँ तो अब वैसी गुफा न थी जिसमें इन वस्तुओं को छिपा रक्खूँगा। अब इन्हें कहाँ किसके पास रक्खूँगा? मेरे परमबन्धु वृद्ध कप्तान बड़े ही सज्जन थे। उन्हीं का एक भरोसा था, पर वे भी तो बहुत वृद्ध हो गये थे। फिर मुझे कभी कभी ब्रेज़िल भी जाना पड़ेगा।
वृद्ध कप्तान के साहाय्य के अनन्तर इँगलैंड-वासिनी कप्तान की पत्नी का स्मरण हो आया। उसीके स्वामी ने पहले पहल मेरी बन्धुहीन जीवनावस्था में मुझे सहायता दी थी। मैंने उस उपकार के बदले उनकी विधवा-पत्नी को डेढ़