था । जब से जहाज़ वालों ने झट पट जहाज़ से उतार कर मुझे
नाव पर बैठा दिया था तब से भय और भविष्य की चिन्ता
से मेरा प्राण अब-तब में हो रहा था ।
हम लोगों की नाव जब उच्च तरंग के ऊपर आ पड़ती थी तब समुद्र का किनारा देख पड़ता था, और हम लोगों की नौका समुद्रतट के निकटवर्ती होने पर सहायता करने की इच्छा से कितने ही लोग समुद्र के किनारे इधर उधर दौड़ते हुए दिखाई दे रहे थे । किन्तु हम लोगों की नाव किनारे की ओर बहुत ही धीरे धीरे जा रही थी । नाव बहुत दूर तक बह कर एक खाड़ी में जा पड़ी इससे हवा कम लगने लगी । तब हम लोग बड़े परिश्रम से नाव को किनारे लगा कर सूखी जमीन पर उतर आये और स्थलमार्ग से यारमाउथ लौट गये । वहाँ के अधिवासी सौदागर और मजिस्ट्रेट प्रभृति सभी सज्जनों ने हम लोगों के दुर्भाग्य पर सहानुभूति प्रकट कर आश्रय और साहाय्य दिया और प्रत्येक को हल या लन्दन शहर जाने तक का राह-ख़र्च देने की भी कृपा की ।
इस समय मैं यही सोचने लगा कि किधर का रास्ता पकड़ूँ । सुबुद्धि होने से अपने घर लौट जाना उचित था । किन्तु मेरी ज़िद मुझे विनाश-पथ की ही ओर बलात् खींच कर ले जाने लगी । घर जाकर माँ बाप और पड़ोसियों को मुख दिखलाने में लज़ा-होने लगी । मैं, दिये के पतंग की भांति विवेकशून्य होकर आप ही अपने विनाश की ओर उद्यत हुआ ।
कप्तान का बेटा मेरा साथी था । उसे मैंने अब की बार अत्यन्त क्रुद्ध और गम्भीर देखा । स्वयं कप्तान अपने पुत्र से