भृत्य-प्राप्ति
अपने इस द्वीपनिवास के चौबीसवें साल के मार्च महीने की एक बदली की रात में मैं बिछौने पर लेटा था। शरीर में कसी प्रकार की अस्वस्थता न थी, और न मन में ही किसी प्रकार की ग्लानि या शोच था। फिर भी न मालूम नींद क्यों न आती थी। मैं पड़ा ही पड़ा अपने जीवन की घटनावली को सोच रहा था। पल पल में मेरे मन का भाव बदलने लगा। अपनी हालत की बात सोच सोच कर भगवान् की असीम करुणा के लिए मेरा हृदय कृतज्ञता से परिपूर्ण होने लगा। धीरे धीरे असभ्यों की चिन्ता ने और उनके घृणित आचार, निर्दय व्यवहार आदि ने फिर मेरे मन पर अधिकार जमाया। यदि उन लोगों के चंगुल में पड़ जाऊँ तो क्या करूँगा, उन लोगों से किसी तरह कुछ सहायता पाकर इस निर्जन टापू से मेरा उद्धार हो सकता है या नहीं, इत्यादि अनेक विषयों को सोचते सोचते मेरा मस्तिष्क गरम हो उठा मानो ज्वर चढ़ आया हो। अन्त में मेरी आँखें लग गईं और मैं सो गया।
सोकर मैंने सपना देखा,-मानो ग्यारह असभ्य दो डोंगियों पर सवार हो कर इस टापू में आये हैं और एक सहायहीन मनुष्य को मार कर खाने का उद्योग कर रहे हैं। वह ज़रा मोहलत पाकर भाग निकला और मेरे किले के सामने उपवन में छिप रहा। मैं उसे इस अवस्था में देख कर एकाएक उसके सामने गया और प्रसन्नता से उसे आश्वासन देने लगा। उसने बड़े विनीत भाव से मुझ से सहायता की प्रार्थना की। मैं उसको सीढ़ी के सहारे किले के भीतर ले आया। तब से वह मेरा सेवक होगया।