अब मैं विश्राम करने की इच्छा से निश्चिन्त हो घर में रहने लगा। प्रायः बाहर न जाता था। यदि कभी जाता भी था तो पूरब ओर। क्योंकि उस ओर असभ्यों के आने की संभावना कम थी, इससे उस तरफ जाने में बन्दूक-बारूद आदि का भार ढोना न पड़ता था। इस तरह और दो साल गुज़र गये। किन्तु मैं अपने लिए आप ही शनिग्रह था। मैं अपने को कहीं स्थिर न रहने देता था। कभी जी में आता था कि एक बार फिर उस भग्न जहाज़ में जाऊँ; कभी मन में यह तरङ्ग उठती थी कि किसी तरह महासमुद्र के पार हो जाऊँ। यदि आफ्रिका का वह जहाज़ मेरे पास रहता तो जैसे होता मैं समुद्र में धंस पड़ता। जो लोग अपनी अवस्था में सन्तुष्ट नहीं रहते उन लोगों में मेरा नम्बर सब से ऊपर है। उन लोगों के लिए मैं ही शिक्षा का स्थल और ज्वलन्त उदाहरण हूँ। मैं अपने बाप के घर से असन्तुष्ट होकर, न मालूम कितनी दुर्दशा भोगकर, ब्रेज़िल में एक प्रकार से कुछ स्थिति पा गया था, किन्तु वहाँ भी सुख से रहना नसीब न हुआ। फिर मेरे सिर पर भूत सवार हुआ। मैं फिर शनिग्रह के फेर में पड़ा। कितने ही कष्ट सहे। अब भी, मैं सुख से हूँ तथापि मुझे अपनी अवस्था पर सन्तोष नहीं। इसके बाद न मालूम और कितना दुःख कपार में लिखा है। किसी ने सच कहा है-सन्तोषेण बिना पराभवपर्द प्राप्नोति मूढ़ो जनः।
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राबिन्सन क्रूसो।