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द्वीप के पास जहाज़ का डूबना।


मैं न जान सका। उसके पाकेट में दो अठनियाँ और एक तम्बाकू पीने का नल था। तम्बाकू के नल को मैंने रुपये से कहीं बढ़ कर मूल्यवान् समझा।

तूफ़ान रुक गया था। मैं अपनी डोंगी पर चढ़कर उस भग्न जहाज़ को देखने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होने लगा। संभव है, उसमें मेरे लिए आवश्यक अनेक पदार्थ मिल जायँ। इसको अपेक्षा मुझे यह भावना और भी उत्साहित करने लगी कि उसमें यदि कोई प्राणी असहाय अवस्था में होगा तो उसके प्राण बचा सकूँगा। यह संभावना मेरे मन को क्षण क्षण में इस प्रकार उत्तेजित करने लगी जैसे इस काम के लिए ईश्वर मुझे प्रेरणा कर रहे हो। उन्हीं के प्रेरणा-विधान पर अपने को निर्भर कर मैं जहाज़ देखने के लिए जाने की आयोजना करने लगा। मैं अपने किले के भीतर आकर एक घड़ा पानी, कुछ रोटियाँ, थैली भर सूखे अंगूर और एक दिगदर्शकयन्त्र लेकर नाव में रख पाया। इसके बाद फिर लौट कर किले के अन्दर से एक थैली में खाना, अपनी छतरी, एक घड़ा और पानी, दो दर्जन चपातियाँ, कुछ पूर्व, बोतल भर दूध, और कुछ खोया साथ लेकर पसीने से तरबतर होता हुआ बड़े कष्ट और कठिनाई से अपनी डोंगी तक पहुँचा। सब चीज़ों को डोगी पर लाद कर और भगवान् का नाम लेकर मै डोगी में सवार हो रवाना हुआ और धीरे धीरे उस भीषण स्रोत के पास पहुँचा। उसका वह तोव वेग देख कर मेरा जी सूखने लगा। आख़िर मैंने ज्वार आने पर जाने का निश्चय किया।

वह रात मैंने नाव ही पर बिताई। सबेरे ज्वार आते ही मैंने डोंगी खोल दी। दो ही घंटे में प्रखर-प्रवाह के सहारे उस, टूटे हुए जहाज़ के पास जा पहुँचा। जहाज़ की दुर्दशा देख