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गुफा का आविष्कार।


खड़ा हो सकता था तथा दो आदमी और भी मेरे पास ही पास खड़े हो सकते थे। यह गुफा देख कर मेरे आनन्द की सीमा न रही। मैंने इसी के भीतर अपना गुप्तस्थान बनाने का निश्चय किया। यदि कोई असभ्य इस कन्दरा के मुँह के पास तक आवेगा तो भी वह सहसा इसके भीतर प्रवेश करने का साहस न करेगा। मुझको छोड़ दूसरा कोई इसके भीतर घुसने का साहस करता या नहीं, इसमें सन्देह है।

मैंने गुफा के भीतर प्रवेश किया। भीतर भयानक अन्धकार था। अच्छी तरह देखने के लिए आँखे फाड़ कर देखा कि किसी के दो नेत्र उस अन्धकार में तारों की तरह चमक रहे हैं। वह मनुष्य था या शैतान? कौन जाने क्या था? मैंने उसके शरीर का और आकार तो देखा नहीं, देखा सिर्फे वही एक अद्भुत ज्योतिर्मय पदार्थ। तब मैं एक ही छलाँग में कूद कर गुफा के बाहर निकल पाया।

कुछ देर के बाद सँभल कर फिर मैंने साहस किया। एक धधकती हुई लकड़ी लेकर मैं गुफा के भीतर घुसा। तीन चार डग जाते न जाते एक कष्ट-जनक दीर्घश्वास और कराहने का शब्द सुन कर में फिर पूर्ववत् डर गया। मेरा शरीर पसीने से तर बतर हो गया। बार बार रोमाञ्च होने लगा। कुछ देर बाद फिर साहस किया और यह सोचा कि भगवान् सर्वत्र रक्षक हैं-"जाको राखे साँइयाँ मारि सकै नहिं कोय।" मैं फिर गुफा में गया और उस प्रज्वलित लकड़ी को ऊपर उठा कर देखा कि एक बहुत बूढ़ा बकरा मरणासन्न पड़ा है। मैंने उसे हाथ से ज़रा ढकेला, तो उसने उठने की चेष्टा की, पर वह उठ न सका। तब मैंने कहा कि अच्छा,