एक दम छोड़ दी। उसे लाने के लिए जाकर यदि मैं असभ्यों के सामने पहुँच जाऊँ तो मेरी जो दशा होगी वह मैं जानता हूँ या विधाता जानते हैं। इसलिए मैंने एक और नाव बनाने का संकल्प किया।
जब यों ही अधिक समय बीत गया तब राक्षसों का भय बहुत कुछ जाता रहा। मैं पहले ही की भाँति निश्चिन्त भाव से अपना काम-धन्धा करने लगा। हाँ, चौकन्ना ज़रूर बना रहता था। वे नरभक्षी असभ्य कहीं आवाज़ न सुन लें, इस भय से मुझे बन्दूक चलाने का भी साहस न होता था। अब मैंने समझा कि बकरों को पाल कर मैंने सचमुच बड़ी बुद्धिमानी का काम किया है। यद्यपि मैं बिना बन्दूक लिये कभी बाहर नहीं जाता था तथापि दो वर्ष के बीच मैंने एक बार भी बन्दूक की आवाज़ नहीं की। यदि बकरे की आवश्यकता होती तो जाल बिछा कर पकड़ लेता था।
अभी मेरी जीवन-यात्रा के लिए प्रभाव-जनित कोई कष्ट न था। केवल इन अभागे राक्षसों के भय से मेरी बुद्धि स्तब्ध हो गई थी, इसलिए कोई नवीन वस्तु बनाने की उत्पादिका शक्ति भी मन्द हो गई थी। यदि कुछ चिन्ता थी तो उन्हीं राक्षसों को। दिन रात उनकी चिन्ता मेरे चित्त को घेरे रहती थी। कभी कभी मैं यह सोचता था कि वे हतभागे जो महा-मांस खाते हैं, सो इस राक्षसी वृत्ति से किसी तरह उनका मैं उद्धार कर सकता हूँ या नहीं? उन नर-मांसभक्षियों को इस दुराचार का कुछ दण्ड दे सकता हूँ या नहीं। ऐसे हो न मालूम कितनी अद्भुत और असम्भव बातों को मैं सोचता रहता था। राक्षसों को इस द्वीप में न आने