देखा। मालूम होता है, वे राक्षस उस अग्निकुण्ड के चारों ओर बैठ कर मनुष्य का मांस खाया करते हैं।
यह दृश्य देख कर मैं अपनी विपदा की बात भूल गया। इन नर-पिशाचों के राक्षसी व्यवहार की बात ने मेरे हृदय में घर कर लिया। मैंने उस भीषण दृश्य की ओर से अपनी दृष्टि फेर ली। मेरा जी घूमने लगा। मूर्च्छित होने की तरह एक प्रकार से मैं अचेत होगया।
आखिर खब वमन कर डालने पर मेरा शरीर कुछ हलका सा हुआ। वहाँ से झट पट मैंने बड़े बड़े कदम बढ़ा कर अपने घर की ओर प्रस्थान किया।
मार्ग में जब मुझे कुछ होश हुआ तब ईश्वर की दया के लिए मेरा हृदय कृतज्ञ हो उठा। उन्होंने इतने दिनों से मुझे इन राक्षसों के हाथ से बचाया है, इससे मैंने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया।
इस प्रकार ईश्वर की उदारता को मन ही मन सोचता हा मैं घर पहुँचा। घर पहुँच कर मैं अपने को बहुत कुछ निरापद समझ स्वस्थ हुआ। तब मैंने सोचा कि वे असभ्य राक्षस इस द्वीप में किसी को खोजने या कुछ लेने की आशा से अक्सर नहीं आते। मैं अट्ठारह वर्ष से यहाँ हूँ, पर एक दिन भी किसी मनुष्य की सूरत नहीं देखी। शायद और भी अट्ठारह वर्ष यहाँ रहूँगा, तब भी किसी को न देखूँगा। अब मुझे इतना सावधान होकर रहना चाहिए जिसमें मैं स्वयं उन धूर्तों के चंगुल में न जा फँसूँ। इस भय से मैंने दो वर्ष तक अपने घर की सीमा के बाहर पैर न रक्खा। यहाँ तक कि मैंने अपनी डोंगी की भी कुछ ख़बर न ली। उसकी आशा मैंने