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खेती।


राजा की भाँति भोजन करने बैठता था तब मेरे भृत्य मुझे घेर कर बैठते थे। उनमें श्रात्माराम मेरा विशेष सम्मानास्पद था। मेरे साथ बाते करने की प्राक्षा एक उसी को थी। वही एक मेरा मुँह-लगा मुसाहब था। मेरा अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण कुत्ता सामने और दो बिल्लियाँ दोनों बगल में बैठ कर प्रसाद पाने की अपेक्षा करती थीं। इस समय एक प्रगल्भवक्ता साथी को छोड़ मुझे और किसी वस्तु का प्रभाव जनित कष्ट न था। ये वे बिल्लियाँ नहीं हैं जिन्हें मैं जहाज़ पर से लाया था। ये उन्हीं में के एक के बच्चे हैं। वे दोनों तो मर गई। उनके बहुत बच्चे हुए थे, जिनमें ये दोनों तो पल गये और सब बनैले हो गये। पीछे से वे बड़ा उत्पात करने लगे। छिप कर घर की चीज़ खा जाते थे और कितनी ही वस्तुओं को नष्ट-भ्रष्ट कर डालते थे। तब मैं निरुपाय होकर उन पर गोली चलाने लगा। कई एक के मरते ही अवशिष्ट श्राप ही भाग गये। मैं इस समय बेखटके शान्त भाव से निवास कर रहा हूँ।



खेती

मैं अपनी नाव के लिए अधीर हो उठा था, परन्तु उसके लिए फिर मैं विपत्ति में पड़ना भी नहीं चाहता था। अपनी डोंगी को देखने के लिए दिन दिन मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी। आखिर मैंने स्थल मार्ग से उस नदी के मुहाने तक जाने का विचार किया जहाँ वह नाव बँधी थी। मैं किनारे किनारे चला। जिस स्वरूप से मैं रवाना हुआ, उस शकल में यदि कोई मुझे देखता तो निःसन्देह वह बहुत डरता या हँसते हँसते लोट पोट हो जाता। मैं आप ही अपने को देख कर हँसी न रोक सका। मेरे चेहरे का नमूना इस तरह था,