था उधर विपत्ति ही विपत्ति नज़र आती थी । माल से भरे दो जहाज़ों के मस्तूल जड़ से काट कर इसलिए फेंक दिये गये कि वे कुछ हलके हो जायँ । एक भी जहाज़ ऐसा न था जिसका मस्तूल खड़ा हो; लंगर कट जाने से दो जहाज़ समुद्र की ओर प्रधावित होकर बाहर निकल गये । हमारे जहाज़ के नाविक गण कहने लगे–-“यहाँ से एक मील पर एक जहाज़ डूब गया है ।" केवल बोझ से खाली जहाज़ कुछ निरापद और स्वच्छन्द थे, किन्तु उनमें भी दो जहाज़ हमारे जहाज़ के निकट चले आये थे ।
सन्ध्या-समय हमारे जहाज़ के मेट और मल्लाहों ने मस्तूल काटकर जहाज़ हलका करने के लिए कप्तान की अनुमति चाही; किन्तु इसमें उनकी सम्मति न थी; पर मल्लाहों ने जब उनको अच्छी तरह समझा कर कहा कि मस्तूल न काटने से जहाज़ न बचेगा, तब लाचार होकर उन्होंने आज्ञा दे दी । आज्ञा होते ही मल्लाहों ने मस्तूल काट कर जितने डेक थे सबों को एक दम साफ़ कर दिया ।
यह हाल देख-सुन कर मेरे चित्त की जो अवस्था हो रही थी वह अनिर्वचनीय है । क्रमशः तूफ़ान ने ऐसा भयानक रूप धारण किया जिससे मल्लाह भी कहने लगे कि "ऐसा तूफ़ान हम लोगों ने कभी न देखा था ।" हम लोगों का जहाज़ बहुत मज़बूत और अच्छा था, किन्तु बोझा बहुत था, इससे वह ऐसा बेढब हिलने डुलने लगा कि मल्लाह लोग भी रह रह कर चिल्ला उठते थे कि "अब की बार जहाज़ गया, अब डूबा, इस बार अब न बचेगा ।" मैंने अब तक कभी जहाज़ डूबते नहीं देखा था, इससे कुछ जीवित दशा में था, नहीं तो भय से ही मर गया होता ।