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वस्त्रों की चिन्ता।


मेरे पहनने के कपड़े भी अब धीरे धीरे फटने लगे। एक भी सूती कुर्ता मेरे पास नया न था; सभी पुराने और फटे थे। नाविकों के सन्दूक में जो छींट के कई कुत्ते मिले थे उन्हीं को यत्नपूर्वक पूँजी की तरह सँभाल कर रक्खा था; कारण यह कि किसी किसी समय सूती कपड़े को छोड़ कर दूसरा कपड़ा पहना ही न जा सकता था। यद्यपि यह देश ग्रीष्मप्रधान है, किसी कपड़े की उतनी आवश्यकता नहीं, तथापि मैं नंगा रहना हर्गिज़ पसन्द न करता था। मैं यहाँ एकाकी था फिर भी अपने शरीर की मुझे आप ही लजा होती थी। इसके अतिरिक्त यहाँ धूप इतनी कड़ी पड़ती थी कि खुला बदन रहने से शरीर में फफोले पड़ जाते थे। कुर्ता पहने रहने से उतनी गरमी नहीं जान पड़ती थी बल्कि कुत्ते के भीतर हवा जाने से ठंढक मालूम होती थी। मुझे एक टोपी की भी ज़रूरत थी। खाली सिर धूप में फिरने से सिर में दर्द होने लगता था।

यह सब सोच-विचार कर मैंने एक तरकीब से काम लिया। अपने जिन पुराने कपड़ों को अकारथ समझ कर मैंने त्याग दिया था उन्हें जोड़जाड़ कर कुछ बना सकता हूँ या नहीं, इसकी जाँच कर लेना मैंने उचित समझा। मैं रफ करने में तो अनाड़ी था ही, दर्जी के काम में और भी अनाड़ी था। इसलिए उन कपड़ों से जो कुछ बनाया वह एक विचित्र ढंग की वस्तु हुई। फिर भी वह मेरे काम चलाने योग्य हो गई।

मैंने अब तक जितने पशुओं को मारा था उनके चमड़ों को फेंक न दिया था, बल्कि उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखाकर