की आँधी के समय की भाँति बड़ी सावधानी और
फुरती के साथ समय बिता रहे थे । आठवें दिन सवेरे वायु
का वेग और भी प्रबल हो उठा । हम लोग जहाज़ सँभालने
में जी जान से लग पड़े । मस्तूल का ऊपरी हिस्सा नीचे
गिरा दिया । और ऐसी व्यवस्था करने लगे जिसमें जहाज
सुरक्षित होकर हम लोगों को आराम दे । दो पहर होते होते
समुद्र ने भयङ्कर रूप धारण किया । हम लेागों के जहाज
का अग्रभाग और पीछे का हिस्सा जल में ऊब डूब करने
लगा । समुद्र के प्रत्येक हिलकोरे में जहाज के भीतर
जल आने लगा । कप्तान ने और कोई उपाय न देख एक बड़ा
लंगर फेंक देने का आदेश दिया और लंगर की जितनी ज़ंज़ीरें
थीं सब पानी में छोड़ दी गई ।
क्रमशः तूफ़ान भयानक हो उठा । उस समय मैंने नाविकों के चेहरे पर भी भय का चिह्न देखा । जहाज की रक्षा के प्रबन्ध में व्यग्र होकर कप्तान बार बार अपनी कोठरी में जाते थे, और बार बार बाहर आते थे । उनको मैंने आप ही आप यह कहते सुना था, "हे ईश्वर दया करो,हा सर्वनाश हुआ, हम लोगों की जान गई ।" तूफ़ान की प्रथम अवस्था में में कुछ निश्चिन्त सा होकर चुपचाप अपनी कोठरी में पड़ा था, और अपने मन में सोच रहा था कि यदि बहुत बड़ा तूफ़ान होगा तो उस दिन का ऐसा होगा । किन्तु स्वयं कप्तान को भीत होते देखकर मैं बेहद डरा ।
मैंने अपनी कोठरी से बाहर आकर जो भयंकर दृश्य देखा, उससे मेरे होश उड़ गये । पर्वत की तरह उच्च आकर धारण कर समुद्र तीन चार मिनट के भीतर ही हमारे जहाज़ को ले देकर रसातल में पहुँचा देगा । मैं जिस ओर देखता