माना मैं संसार के सम्पर्क से विमुक्त होकर सदेह परलोकवास कर रहा हूँ। यहाँ मैं ही एक निष्कण्टक बादशाह था। अब मुझे किसी वस्तु की कमी के कारण कोई कष्ट न था। कोई व्यर्थ की वासना अब मन को पीड़ित नहीं करती थी। इसके सिवा इस एकाधिप-सम्पत्ति-सम्भोग में लेशमात्र अहङ्कार न था। यहाँ मैं ढेर का ढेर अन्न उपजा सकता था; पके अंगूरों से घर भर सकता था। अपनी इच्छा के अनुसार जितने चाहिएँ उतने कछुए, बकरे, भाँति भाँति के पक्षी और लड़कियाँ ले आ सकता था। किन्तु इतना लेकर मैं करता क्या? एक व्यक्ति के लिए जितना यथेष्ट हो सकता है उतना ही में लेता था। अधिक लेकर क्या करता? इस समय अपनी अवस्था की बात सोच कर मुझे यत्किञ्चित् यही ज्ञान हुआ कि वस्तुओं का मूल्य आवश्यकता के ही अनुसार होता है। उत्तम से उत्तम पदार्थ तभी तक मूल्यवान् गिना जाता है जब तक लोग उसे आवश्यक समझते हैं। आवश्यकता न रहने पर उसका कुछ मोल नहीं। संसार का सर्वप्रधान लोभी अथवा कृपण मेरी अवस्था में पड़ कर एक अच्छा दानी बन जाता, इसमें सन्देह नहीं। मेरे पास कुछ रुपया था, यह पहले ही पाठकों को मालूम हो चुका है। मैं इस समय मटर, सेम, मूली, शलगम प्रति तरकारियों के एक एक बोज के लिए या एक बोतल स्याही के लिए मुट्ठी भर रुपया देने को प्रस्तुत हूँ। जिस रुपये के लिए संसार के कितने ही लोग दिन रात लालायित रहते हैं वह रुपया मेरे नजदीक इस समय कोई चीज नहीं। इन बातों को सोच विचार कर मेरा मन ईश्वर के प्रति दृढ़ भक्ति से प्रार्द्र हो उठा। मैंने विशुद्ध भाव से ईश्वर की उपासना की और उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये। मैं इस
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नौका-गठन।