के आकार में गढ़ने में पूरा एक महीना लगा। तदनन्तर रुखानी और बसूले से छील छाल कर बड़े परिश्रम से एक सुन्दर डोंगी तैयार कर ली। यह इतनी बड़ी थी कि इसमें छब्बीस आदमी खुशी से बैठ कर समुद्र-यात्रा कर सकते थे। इसलिए यह नौका मुझ अकेले को और मेरे माल असबाब को ढोकर ले जाने के लिए बड़ी ही उपयुक्त हुई।
नाव बन गई, पर उसे जल में ले जाने का उपाय क्या है? मेरे सब परिश्रम व्यर्थ हुए। नौका पानी से करीब सौ गज़ के फासले पर थी। मैंने नाव को लुढ़का कर ले जाने के लिए मिट्टी खोद कर ज़मीन को ढलुवा बनाया। यह युक्ति भी मेरी ख़ाली गई। अनेक चेष्टा करने पर भी नाव अपनी जगह से न हिली। तब मैंने संकल्प किया कि समुद्र से नाला खोद कर नाव के पास तक पानी ले पाऊँगा, इससे नाव सहज ही पानी पर तैरने लगेगी। समुद्र से नाव तक नाले की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का परिणाम ठोक कर के देखा कि उतना बड़ा नाला खोदने में मुझ अकेले को कम से कम दस-बारह वर्ष लगेंगे। तब एक दम हतोत्साह होकर मैंने इस संकल्प को त्याग दिया। इस नौका-संगठन से जो मेरे मन में पश्चात्ताप हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। हाँ, इससे मैंने एक शिक्षा ज़रूर पाई-आगे पीछे की बिना विवेचना किये किसी काम में हाथ डालना ठीक नहीं।
इस समय मेरे एकान्त-वास का चौथा साल पूरा हुआ। यहाँ अपने आने की प्रथम तिथि को पूर्ववत् पर्व की भाँति मान कर उत्सव मनाया। ईश्वर की कृपा से इस समय मैं सांसारिक विषय सम्बन्ध से बहुत कुछ विरक्त हो गया था।