कठिन प्रतीत होने लगा मेरा आग्रह भी उतना ही बढ़ने लगा।
अब मैं यह सोचने लगा कि क्या मैं स्वयं एक नई डोंगी नहीं बना सकता? आफ़्रीका के रहने वाले तो बिना विशेष अस्त्र शस्त्र के ही पेड़ के तने को खोखला करके अच्छी डॉगी बना लेते हैं; मेरे पास इतने हथियार होते हुए भी क्या मैं एक नाव न बना सकूँगा? यह भावना होते ही मेरे मन में पूर्ण उत्साह हुआ। किन्तु उस समय मुझे यह न सूझा कि हबशियों के औज़ार के अभाव की अपेक्षा भी मुझ में एक गुरुतर अभाव है। हबशियों को जनसमाज का बल रहता है पर मैं अकेला उस बल से रहित हूँ। नाव बन जाने पर भी उसे ठेल कर पानी में कैसे ले जाऊँगा?
मैं इस असुविधा की ओर कुछ भी लक्ष्य न कर के वजमूर्ख की तरह नाव बनाने पर उद्यत हुआ। यदि मन में कभी यह प्रश्न होता भी था तो यही कह कर टाल देता था कि पहले नाव बन ले फिर देखा जायगा।
मैंने एक पेड़ काट डाला। यह पेड़ खुब मोटा और लम्बा था। उसके नीचे का हिस्सा एकसा सीधा, बाईस फुट से भी कुछ ज्यादा लम्बा, था। उसकी जड़ का व्यास पाँच फुट दस इञ्च और बाईस फुट के ऊपर का व्यास चार फट ग्यारह इञ्च था। उसके ऊपर का हिस्सा कुछ पतला सा हो कर शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था। पेड़ तो मैंने किसी तरह काट कर गिराया। इसकी जड़ काटने में बीस दिन लगे और चौदह दिन इसके ऊपर का हिस्सा काटने और डाल-पात छाँटने में लगे। इसके बाद उस तने को नाव