पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/१३०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११३
मिट्टी के बर्तन बनाना और रोटी पकाना।

एक दिन मैंने मांस पकाने के लिए खूब तेज़ आग जलाई। मांस पका कर जब आग बुझा दी तब देखा कि मेरे गढ़े हुए बर्तन का एक टुकड़ा भाग में पक कर खूब बढ़िया ईंट की तरह लाल और पत्थर की तरह सख्त हो गया है। तब मैंने मन में सोचा कि यदि फूटा हुआ पकता है तो साबित बर्तन क्यों न पकेगा? इस आशा से मेरा हृदय आनन्द से उमँग उठा।

मैंने कुम्हार का आवाँ कभी नहीं देखा था तो भी कुछ हाँड़ियाँ, मलसे, कलसियाँ और रकाबियाँ आदि छोटे बड़े बर्तनों को एक के ऊपर एक करके रक्खा; और उसके नीचे कोयले बिछा कर चारों ओर सूखी लकड़ियाँ लगाकर रख दी। उसमें आग लगा कर धीरे धीरे उसके ऊपर और बग़ल में मोटी लकड़ियाँ रख दीं। कुछ देर बाद देखा कि बर्तन भाग की ज्वाला से उत्तप्त होकर लाल हो गये हैं, पर उनमें एक भी फूटा नहीं है। मैंने उन बर्तनों को उसी तरह पाँच छः घंटे कड़ी आँच में रहने दिया। इसके बाद देखा कि बर्तन तो एक भी नहीं टूटा फूटा, किन्तु वे गले जा रहे हैं। जिस मिट्टी से मैने हाँडी बनाई थी उसमें बालू मिली थी। वही बालू अधिक आँच लगने से गल कर काँच होगई। यदि मैं और पाँच देता तो हाँडी गल कर काँच हो जाती। इससे मैं धीरे धीरे आँच कम करने लगा। ज्यों ज्यों आँच कम पड़ने लगी त्यो त्यों बर्तनों की लाली भी मन्द होने लगी। अन्त में ठंडे पड़ जाने पर बर्तन कहीं फूट न जाय, इस आशङ्का से मैं सारी रात बैठा ही रहा और धीरे धीरे आग की आँच कम करता रहा। सबेरे प्राग बुझा कर देखा तो तीन प्यालियाँ और दो हाँड़ियाँ अच्छी तरह पक गईं थीं।