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फ़सल।


उसी में से मैंने बयालिस दिन में सिर्फ एक तख्ता निकाला था। पाठकगण इसी से मेरे काम की शृंखला और दौर्भाग्य की बात समझ जायँगे।

मैं इस द्वीप में उतरने की तिथि ३० वीं सितम्बर को बराबर, पर्व दिन की भाँति पवित्र मानकर, उत्सव मनाता था। ईश्वर ने इस जनशून्य द्वीप में, मेरी इस असहाय अवस्था में, जो कुछ सुख की सामग्री दे रक्खी है वह इतने दिन तक कभी स्वजन-समाज में प्राप्त न हुई थी। इस कारण उनके चरणकमलों में मेरा चित्त चिरकृतज्ञ बना रहता था। दूसरी बात यह कि मैं अब अकेला ही कैसे हूँ? ईश्वर अलक्षित रूप से मेरा साथ देकर मेरी निर्जनता को पूर्ण कर रहे हैं। इस समय मुझे उन पर भरोसा है। वे मेरे लिए शान्ति, सान्त्वना और उज्ज्वल आशा के रूप में प्रकाशमान हैं।

पहले जब दुःख के भार से मेरा मन व्याकुल हो उठता था तब मैं रो कर सान्त्वना की खोज करने लग जाता था, किन्तु अब और तरह की सान्त्वना को न खोज कर बाइबिल पढ़ता हूँ। एक दिन मेरा मन बड़ा ही उदास था। मैं सबेरे बाइबिल ले कर पढ़ने बैठा। पन्ना उलटाने के साथ पहले ही इस वाक्य पर दृष्टि पड़ी-ईश्वर का कथन है "मैं अपने भक्तों को कभी नहीं छोड़ता, किसी भी अवस्था में नहीं।" अहा, कैसा चमत्कृत वाक्य है, कैसी मधुमयी वाणी है! मानों स्वयं भगवान् मुझको सान्त्वना दे कर यह बात प्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं। तो अब भय क्या? मैं भी उसी जगत्पिता का एक पुत्र हूँ।

इसी प्रकार काम करते और सोचते विचारते हेमन्तकाल उपस्थित हुआ। इस समय मेरी धान और जौ की फसल के