चार दिन तक तराई के जंगल में मार्ग भूलकर घूमता रहा। उसकी वजह यह थी कि कई दिनों से आकाश कुहरे से बिलकुल ढका था, इसलिए सूर्य्य को देखकर दिशा के निर्णय करने का भी सुयोग न था। मैं अत्यन्त उद्विग्नतापूर्वक घूम फिर कर आखिर फिर समुद्र-तट को ही लौट आया। यहाँ मैंने अपने चिह्न-स्वरूप खम्भे को ढूँढ़ निकाला। फिर जिस रास्ते से घूमने आया था उसी रास्ते से लौटा। तब आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था। सूर्य का ताप असह्य हो उठा। बन्दूक, कुल्हाड़ी और अन्यान्य भारी वस्तुएँ लिये रहने के कारण पसीने से तरबतर होता हुआ घर पहुँचा। मेरे अदृष्ट की बलिहारी है।
लौटते समय मेरे कुत्ते ने एक बकरी के बच्चे को पकड़ लिया। मैं झट दौड़कर गया और उसके पास से उसे छुड़ा लिया। मैं दो-चार बकरों को पाल कर उनकी संख्या बढ़ाना चाहता था। यह इस लिए कि शायद गोली-बारूद घट भी गई तो मेरे खाने को कुछ टोटा न रहे। इस बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पालूँगा, यह मैंने पहले ही सोच लिया था। अब एक गर्दानी (गले की रस्सी) बना करके उसके गले में बाँध दी और उसमें एक रस्सी बाँधकर उसे खींचते हुए किसी तरह अपने कुञ्जभवन में ले गया। मैं घर लौटने के लिए व्यग्र हो रहा था, क्योंकि घर छोड़े एक महीना हो गया था। बकरे को खींचकर घर ले जाने में विलम्ब होता, इसलिए उसे कुञ्जभवन में ही बाँध रक्खा।
बहुत दिनों के बाद घर लौट कर बिछौने पर सोने से जो आराम और सुख मिला उसका वर्णन नहीं हो सकता। चिरवियोग के बाद प्रिय-सम्मिलन का सुख और परदेशी