महीनों से वहाँ नहीं गया था तथापि वहाँ जिन वस्तुओं को
जैसे रख आया था उन्हें उसी रूप में पाया। कुञ्जनभवन के
चारों ओर जिन पेड़ों का घेरा दिया था, वे अब अच्छी तरह
लग गये हैं और उनकी डालें तथा पत्ते चारों ओर फैल गये हैं।
मैंने उनके नूतन डाल पत्तों को छाँट कर एक सा कर दिया।
तीन वर्ष में वे पेड़ से झंखाड़ होकर, पचीस फुट व्यास के
एक वृत्ताकार स्थान को अपनी शाखाओं से ढक कर,
शोभायमान होने लगे। उन्होंने एक ऐसा सुन्दर छायाशीतल
कुञ्जवितान निर्माण किया कि उसकी शोभा बरनी नहीं
जाती। यह देख कर मेरे मन में यह इच्छा हुई कि अपने
निवास-स्थान के सामने अर्घ वृत्ताकार में इन पेड़ों का एक
घेरा बनाऊँ। पहले के घेरे से आठ फुट के अन्तर पर इन पेड़ों
को मैंने पंक्तिबद्ध रोप दिया। पेड़ शीघ्र ही लग गये और
पल्लवित होकर प्रथम तो घर के आच्छादक और दूसरे रक्षा
के कारण हो उठे।
यहाँ विलायत की तरह ठण्ड और गरमी नहीं पड़ती थी। यहाँ साल में दो मौसम, एक वर्षा और दूसरा वसन्त अर्थात् जाड़े और गरमी का मध्य समय होता था। वर्षा का दारमदार हवा पर था। जब मौसमी हवा चलती थी तब बीच बीच में भी पानी बरस जाता था। वर्षा में भीग कर मैं एक बार बीमारी से बहुत कष्ट भोग चुका था, इस कारण अब की वर्षा में यथासंभव घर ही में रहता था। इस अवकाश के समय टोकरी बुनने के लिए मैंने बहुत चेष्टा की किन्तु इसके लिए उपयुक्त समग्री न मिलती थी। मैंने सोचा कि जिन पेड़ों से मैंने घर का घेरा बनाया है उनकी पतली डाल से टोकरी बन सकती है। इसलिए दूसरे दिन कुञ्जभवन में जाकर कुछ