कर्तव्य की अवहेला करके, पिता के पास से भागने का यह उचित दण्ड ईश्वर ने दिया । "उस समय माँ-बाप के अनुनय, अश्रुजल और उपदेश मुझे याद आने लगे । ईश्वर और पिता के प्रति मेरे कर्तव्य की त्रुटि के लिए मेरी धर्मबुद्धि मुझ को बार बार धिक्कारने लगी ।
आँधी का वेग क्रमशः बढ़ने लगा और समुद्र का जल ताड़ के बराबर ऊपर बढ़ गया । दो-एक दिन पहले मैने आँधी और समुद्र का जैसा कुछ भयङ्कर रूप देखा था उससे कहीं बढ़ कर आज की आँधी और समुद्र की अवस्था थी । मेरे प्राण सुखाने के लिए अभी यही यथेष्ट था । क्योंकि उस समय मेरी उम्र नई थी और समुद्र के साथ मेरा यही प्रथम परिचय था । समुद्र की भीषण मूर्ति देख कर मैं यही सोचने लगा कि हम लोगों की जीवनलीला आज ही समाप्त होगी । जब मैं एक से एक ऊँची तरङ्ग को आते देखता तब मेरे मन में यही होता था कि अब की बार इसी के भीतर हम लोगों की चिरसमाधि लगेगी । प्रत्येक बार जहाज़ तरङ्ग के ऊपर चढ़ कर मानो आकाश को चूमता था, और दो तरङ्गों के बीच के गढ़े में पड़ने पर ऐसा मालूम होता था । मानो वह पाताल में जा रहा है, अब फिर कभी ऊपर न आवेगा । यह भयङ्ककर दृश्य देख कर मेरे होश उड़ गये । हृदय की ऐसी अधीरता के समय मैं ईश्वर से बार बार क्षमा की प्रार्थना और मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगा कि भगवान् ! इस बार यदि मेरे प्राण बच गये यदि खुशीखुशी समुद्र-तीरवर्ती सूखी ज़मीन पर मैं पैर रख सका तो इस जीवन में फिर कभी जहाज़ पर न चढ़ूँँगा और न कभी समुद्रयात्रा का नाम ही लूंँगा । समुद्र के किनारे पाँव रखते