ईश्वर का दिया दण्ड है--यह मैं कभी न समझता था। पिता
की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर के मैं पशु की भाँति सब
कष्टों को सहता गया। जब मैंने विपत्ति से छुटकारा पाया
तब भी मेरे मन में कृतज्ञता का भाव उदित न हुआ।
बीच बीच में बिजली की चमक की तरह हृदय में एक अनिर्वचनीय आनन्द की झलक आ जाती थी, पर वह स्थिर न रहती थी। उस आनन्द को स्थायी करने की चेष्टा करने से कदाचित् प्रेमानन्द प्राप्त हो सकता। भयङ्कर विपत्ति में जब आशा का क्षीण प्रकाश उदित होता है तब उसे ईश्वर की करुणा समझ कर हृदय में धारण करते नहीं बनता। इस तरह का विचार कभी मेरे मस्तिष्क में आता ही न था।
किन्तु इस समय मैं, असहाय अवस्था में, ज्वर से पीड़ित हो कर सामने मृत्यु की विभीषिका देखने लगा। ज्वर की पीड़ा से शरीर दुर्बल, निस्तेज और निःशक्त हो गया। तब इतने दिनों की निद्रित-प्राय धर्म्म-बुद्धि और विवेक कुछ कुछ जाग्रत होने लगा। ज्वर की यातना और विवेक की ताड़ना से मैं उसी अज्ञान दशा में ईश्वर की उपासना करने लगा। मैंने ईश्वर से क्या प्रार्थना की, उनसे क्या माँगा, यह स्मरण नहीं। याद केवल इतना ही है कि अश्रु से बिछौना और तकिया भीग गया था। इतनी देर में सुध आई कि पिता ने कहा था--"बाप की बात टालने से भगवान् अप्रसन्न होंगे और तुम्हारा अकल्याण होगा।" आज मैं इस वाक्य की सच्चाई का अनुभव करने लगा। मैंने खूब ज़ोर से चिल्ला कर कहा--"भगवन्! इस सङ्कट में तुम मेरी रक्षा करो।" ईश्वर से यही मेरी पहली प्रार्थना थी।