"देवी! संभल जाओ। वे इधर ही आ रहे हैं।"
"हां, वे ही हैं। कितने दुबल हो गए हैं! मुंह पीला हो गया है। बाल पक गए हैं। सखी! मेरा सिर घूम रहा है।"
राम की ध्वनि फिर सुनाई दी, हाय, सीता! प्यारी सीता॥"
सीता ने चीत्कार किया, "हाय, आर्यपुत्र!"
राम ने और भी कहा, "अरे, मेरे सुख-दुख की संगिनी जनकदुलारी सीताॱॱॱ।"
यह कहते-कहते वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। सीता ने उन्हें दूर से मूर्च्छित होते देखा। घबराकर बोली, अरी, सखी! वे तो इस अभागिनी को पुकारते-पुकारते ही मूर्च्छित हो गए।"
चलो, देवी! उनका कुछ यत्न करें।"
सखी! मेरा हाथ पकड़कर चलो। मेरी आंखें आंसुओं से अंधी हो रही हैं और मेरे पांव लड़खड़ा रहे हैं।" दोनों मूर्च्छित राम के पास आ पहुंचीं।"
वासन्ती ने कहा, "देवी, महाराज के शरीर पर धीरे-धीरे हाथ फेरो।"
राम मूर्छा में बड़बड़ाने लगे, चन्द्रमा नहीं है। दूर तारे टिमटिमा रहे हैं। सन्नाटा छा रहा है। नगरवासी सो रहे हैं; पर उनके राजा की आंखों में नींद नहीं है। कितने दिन बीत गए, सीता, कहां हो? कहां हो? आओ, सीते! आओ। सोने की सीता! तुम हंसती-रोती भी तो नही। क्या क्रुद्ध हो या इस अधम दास को अब भी प्यार करती हो? कुछ पता नहीं। हंसो-हंसो, प्राणेश्वरी! मेरी सोने की सीता! हंसो तो तनिक। मैं समझ लूं कि तुम्हारा प्यार मेरे लिए अभी है।"
सीता ने वासन्ती से कहा, "अरी, सखी! आर्यपुत्र का यह विलाप तो सहा नहीं जाता। कैसे इन्हें चैतन्य करूं?"
"देवी! धीरे-धीरे महाराज के शरीर पर हाथ फेरो।"
राम उस स्पर्श का अनुभव कर बुदबुदाए, "अहा! यह किसने छुआ? प्राण हरे हो गए! सूखते धान पर पानी पड़ा। बोलो, सीते! बोलो एक बार वह मीठा स्वर, जिसे सुनने को तरस रहा हूं। अरी, प्रियम्वदा सीते।"
सीता ने रोते-रोते कहा, "इतने दिन बाद सुध ली आर्यपुत्र! अभागिनी दासी तो चरणों ही में है।"
"कौन बोला यह? कितना मधुर! कितना प्रिय!"
सीता वासन्ती से रोती हुई कहने लगी, अरी, सखी! आर्यपुत्र की मूर्छा टूट रही है। अब चलो यहां से।"
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