कौशल्या ने आंखों में आंसू भरकर कहा, "राम जब इतने बड़े थे तो बिलकुल ऐसे ही थे। हाय राम!"
"चलो महारानी। हम सब महात्मा वाल्मीकि के पास चलकर अपने सन्देह दूर करें।"
"चलिए ऋषिवर।"
पच्चीस
सीता ने सखी वासन्ती से पूछा, "अरी, सखी! सुना है, वे आए हैं।"
"कौन देवी!"
"वही, मेरे जीवन धन, प्राणों के प्रिय, महाराज रघुपति।"
"सुना तो मैंने भी है। तो देवी! तुम गंगा में स्नान करके नयी मृगछाला पहन लो। लाओ, मैं तुम्हारे उलझे हुए बालों को गूंथ दूं, फूलों से सजा दूं।"
"क्यों सखी! यह किसलिए?"
"देवी! एक बार आंख भरके मैं तुम्हें वनदेवी के रूप में देखना चाहती हूं। हाय, मुरझाई हुई बेल की तरह तुम्हारी सोने की देह।"
"सखी! यह देह आज मैं गंगा में विसर्जन करूंगी।"
"ऐसी बात न कहो देवी! तुम्हारा यह पुण्य शरीरॱॱॱ।"
"यह पापी शरीर।"
"नहीं-नहीं, पति और पुत्र के रहते ऐसा न कहो, पर महाराज को ऐसा नहीं करना चाहिए था।"
"प्यारी सखी! रघुकुल-कमल की निन्दा मत करो।"
"धन्य सती! आज भी तुम्हारे मन में उनके लिए वैसा ही प्यार है।"
"प्यार की अमृतधारा पीकर अठारह वर्ष से जी रही हूं, सखी! पर आज मैं मरूंगी।"
"चुप रहो देवी! ऐसी बातें न करो। "
"मैं कैसे उन्हें पापी मुंह दिखाऊंगी। मैं अनाथ हूं।"
"महाराज के रहते?"
"हाय रे, मेरा भाग्य!"
इस समय सीता को राम की ध्वनि सुनाई दी। राम सीता को ढूंढते हुए कह रहे थे, "सीता! तुम कहां हो?"
सीता ध्वनि को पहचानकर बोली, "अरे, यह तो वही पहचानी हुई बोली है! इतने दिनों बाद आज कानों में फिर अमृतवर्षा हुई।"
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