सकेगा?"
"भली भांति हो सकेगा।"
"किस विधि से?"
"वह विधि भगवान वसिष्ठ आपको बताएंगे। आप वसिष्ठ की सेवा में जाइए।"
"जैसी ऋषिवर की आज्ञा। भाई लक्ष्मण! इसकी व्यवस्था तुम करो।"
कुछ समय बाद राम ने गुरु वसिष्ठ से उनके आश्रम में जाकर भेंट की।
वसिष्ठ ने पूछा, "रामभद्र! तुम किसलिए अब मेरे पास आए हो?"
"ऋषिवर! यह दास अब और कहां जाए? आप कहिए, मैं क्या करूं?"
"कठिनाई क्या है रामभद्र!"
"गुरुदेव! छोटे-छोटे राजाओं की मनमानो से प्रजा में शान्ति नहीं रहती है।"
"तब?"
"एकछत्र राज्य की बड़ी आवश्यकता है।"
"तुम प्रतापी राजा हो राम! एकछत्र राज्य की स्थापना करो।"
"ऋषिवर! मैं अकारण किसी पर चढ़ाई नहीं करूंगा।"
"तब अश्वमेध यज्ञ करो।"
"अश्वमेध?"
"हां, रामभद्र!"
"आर्य! मैं भाग्यहीन, पत्नी और पुत्रहीन राजा हूं। यज्ञ वा अधिकारी नहीं।"
"रामभद्र! तुम दूसरा विवाह करो। पत्नी और पुत्र तुम्हें प्राप्त होंगे।"
"हाय, गुरुवर! आप यह क्या कह रहे हैं?" यह कहकर राम रोने लगे। उन्हें रोते देख वसिष्ठ बोले, "रोते हो रामभद्र?"
"भगवन! आपने मेरा घाव छू लिया।"
"रामभद्र! तुम तो बालक की भांति अधीर हो गए वत्स!"
"गुरुदेव! सीता को त्यागे आज अठारह वर्प व्यतीत होते हैं।"
"होते तो हैं।"
"आज अठारह वर्षो में मैंने सीता की सुध भी नहीं ली।"
"हुआ तो ऐसा ही है।"
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