पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/८५

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"राजन्! तुम्हारा यह दुःख तो देखा नहीं जाता। अब इस जर्जर शरीर पर इतने बड़े साम्राज्य का भार भी है और हृदय का भार भी।"

"सो यह तो भगवन्! जीते-जी भार ढोना ही होगा।"

"राजन्! राजधर्म का पालन करके राजा प्रथम अपना कल्याण करता है, फिर पृथ्वी का।"

"सो मैं अपना कल्याण तो कर चुका ऋषिवर!"

"महाराज! त्याग सबसे श्रेष्ठ तप है, उसका पुण्य बहुत है। उसे कातर बनकर क्षीण मत कीजिए।"

"गुरुदेव की अब इस दास को क्या आज्ञा है?"

"महाराज! तप से तेज बढ़ता है। सो आप तेज धारण कीजिए।"

किस प्रकार ऋषिवर!"

"आप महर्षि वसिष्ठ की सेवा में जाइए।"

"कौन-सा मुंह लेकर जाऊं?"

"इतनी आत्मप्रतारणा क्यों?"

"मेरा दुष्कृत्य लोक विख्यात है ऋषिवर!"

"महाराज! दुष्कर्म करके आपने क्या कोई स्वार्थ-साधना की है?"

"नहीं, ऋषिवर!"

"तो आप ऐसा मानते हैं कि आपने किसी पर अत्याचार किया है?"

"केवल अपने ऊपर।"

"तो महाराज! आपने आत्मयज्ञ का पुण्यलाभ किया है। आप ऋषिवर वसिष्ठ की सेवा में जाइए।"

"जाकर क्या कहूं?"

"कहिए कि मैं अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूंगा।"

"अश्वमेध?"

"क्यों नहीं, क्या आप सार्वभौम सम्राट नहीं हैं? क्या पृथ्वी पर आप-सा धीर, वीर, धर्मप्राण, कत्र्तव्यनिष्ठ और भी कोई राजा हुआ है?"

"ऋषिवर! प्रेम के कारण ऐसा कह रहे हैं।"

"जिस सत्य को मैं देख रहा हूं, वह संसार देखे, मैं यही चाहता हूं।"

"वह कैसे?"

"आप अश्वमेध कीजिए।"

"मैं भग्नहृदय राम क्या इसका अधिकारी हूं?"

"अवश्य हैं।"

"मैं विपत्नीक हूं। राजमहिषी के बिना अश्वमेध अनुष्ठान कैसे हो

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