"अब जाओ तुम लक्ष्मण!"
"भाभी!"
लक्ष्मण दुःखी मन वहां से चल दिए।
सीता उन्हें जाते देखती रही। लक्ष्मण के पैर लड़खड़ा रहे थे; पर वे दृढ़ता से चले जा रहे थे। उनके ओझल होने पर सीता ने निःश्वास छोड़कर कहा, "गए, तेज़ और विनय के अवतार, बड़े भाई की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा मानने वाले यती लक्ष्मण, जिन्होंने अपनी इच्छा से चौदह वर्ष वन में नींद और भूख को जीतकर हमारी सेवा की, जिन्होंने कभी आंख उठाकर मेरी ओर नहीं देखा। धन्य लक्ष्मण! धन्य देवर! तुम-सा देवर, तुम-सा भाई जगत में न हुआ, न होगा। जाओ, ईश्वर तुम्हारा भला करे। लो, वह गंगा-पार उतर गए, वह रथ पर बैठ गए। सपने की तरह अयोध्या के सब सुख खो गए। अब आर्यपुत्र के मीठे-प्यारे वचन कब सुनने को मिलेंगे? कभी नहीं, कभी नहीं, हाय रे, सीता के भाग्य! आह, यह कैसी पीर उठी। अरे, इस अभागिनी को कोई संभालो। अरे, मैं अयोध्या के महाप्रतापी महाराज की महारानी हूं; पर इस समय कोई दास-दासी, सखी-सहेली तक पास नहीं। भगवती गंगा! क्या तुम्हारी गोद में जाऊं? मन में प्यारे पुत्र का मुखड़ा देखने की कितनी लालसा थी। परन्तु सीता के भाग्य में पुत्रवती होना कहां! माता कौशल्या! बहन उर्मिला! आर्यपुत्र! ओह, अब नहीं सहा जाता। सबने अभागिनी सीता को भुला दिया।"
दुःख और क्षोभ से सीता मूर्च्छित होकर वहीं भूमि पर गिर पड़ीं। इसी समय दो ऋषिकुमार वहां आए। उन्होंने कहा, "अरे, यह कौन स्त्री यहां मूर्च्छित पड़ी है अथवा मर गई है?"
वे झककर उसे देखने लगे। परीक्षण करने पर एक ने कहा, "अभी जीवित है।"
दूसरे ने भी नासारन्ध्र पर उंगली रखकर कहा, "सांस तो चलती है।"
"आश्रम की तो नहीं है। कोई नगर की स्त्री ज्ञात होती है।"
"किसी बड़े घर की राजलक्ष्मी प्रतीत होती है। गहने नहीं हैं; पर कैसा रूप-तेज है।"
"मूर्च्छित है।"
"अब क्या किया जाय? किसे पुकारें? कौन सहायता करे? तुम जाकर गुरु जी को सूचना दो कि एक स्त्री गंगा के किनारे मूर्च्छित पड़ी है। लो, गुरु जी स्नान करने इधर ही आ रहे हैं।"
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