राज कह दना कि जो अपने धर्म-कर्म में रत है, उसे धार्मिक जन कभी नहीं मारते।"
"रघुकुलमणि! आप धन्य हैं। आप जगत में विद्या, बुद्धि और बाहुबल में अतुल हैं। महामति! आपको ऐसा ही उचित है। महोबली रावण जैसा राक्षस दलपति है, वैसे ही आपनर दलपति हैं। कुछ क्षण में आप दोनों वीरों में शत्रुभाव उदय हुआ था। विधि का विधान अटल है।"
यह कह और राम का अभिवादन कर मत्री लौट गए।
राम ने अपने नायकगणों से कहा, "वीरगण! अब आप भी वीरवेश त्याग सात दिन तक विश्राम कीजिए।.मित्र विभीषण और किष्किन्धापति मित्र सुग्रीव! आप इस सुयोग में समस्त सेना का निरीक्षण करके व्यूहबद्ध कर लीजिए। सात दिन बाद शोक दग्ध रावण प्राणों पर खेलकर काल की भांति हमपर टूटेगा।"
सुग्रीव बोले, "राघवराज! राक्षस रावण अब हततेज हो गया है। उसका अन्त निकट है, तथापि आपकी आनानुसार हम कटक को परिपूर्ण रीति से व्यवस्थित करते हैं।"
राम ने अंगद से कहा, "महाबली युवराज! तुम दस सौ योद्धाओं को लेकर मित्र भाव से राक्षसों के पास समुद्र तट पर जाओ। सावधानी से जाना। मन में शत्रु-मित्र का भाव न लाना। लक्ष्मण को देखकर कदाचित राक्षसराज को रोष आ जाए, इससे युवराज, तुम्हीं जाओ। तुम्हारे प्रतापी पिता ने एक बार रावण को पराजित किया था, इसलिए तुम इस समय शिष्टाचार से उसे संतुष्ट करो।"
तेरह
अशोक वाटिका में सीता मलिनवेश एक शिला पर बैठी कुछ सोच रही थीं। कुछ देर बाद सरमा राक्षसी वहां आई। सीता ने उससे पूछा, "सखि, आज पुरवासी दो दिन से हाहाकार क्यों कर रहे हैं? कन दिन-भर रणनाद होता रहा। कहो बहन! कल कौन हारा, कौन जीता? आज अग्निशिखा के समान बाण आकाश में नहीं दीख रहे। कल सन्ध्या समय तो राक्षस संघ ने जयनाद के साथ लंका में प्रवेश किया, आनन्द के बाजे बजे थे, सन्नाटा क्यों है? हाय, मैं किससे पूछूं? चेरियां तो बताती ही नहीं।"
"देवी! तुम्हारे सौभाग्य से अजेय इन्द्रजीत रण में मारा गया है। इस लिए सारी लंका रात भर विलाप करती रही। इतने दिन में राक्षसेन्द्र का बल क्षय हुआ। तुम्हारे देवर ने यह देवासाध्य कार्य किया है।"
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