देख सकता। हाय-हाय! यहां तो करोड़ों प्राणी छटपटा और हाहाकार कर रहे हैं। हाय-हाय! कैसी भयानक दुर्गन्ध है, जैसे लाखों शव जल रहे हों।"
"ठहरो, मैं मायाबल से तुम्हारे नासारन्ध्र बन्द किए देती हूं। यह देखो यह कुम्भीपाक नरक है। यहाँ तप्त तेल में प्राणी तले जाते हैं।"
तभी सब प्रेत राम को घेरकर खड़े हो गए।
उन्होंने पूछा, "कौन हो? तुम कौन हो? किस मायाबल से शरीर सहित यहां आ गए? तुम्हें देख कर इस नरक में भी शान्ति मिलती है।"
राम बोले, "हे, प्रेतकुल! यह दास दशरथपुत्र राम है। भाग्यदोष से मैं वनवासी हुआ हूं और शंकर की आज्ञा से धर्मराज से भेंट करने आया एक प्रेत ने कहा, "हां, मैं तुम्हें जानता हूं, तुम्हारे बाण से मैं मरा था मैं मारीच हूं।"
पर तुरन्त ही सब प्रेत भाग गए। एक आर्तनाद सुनाई दिया। यमदूती बहुत-सी स्त्रियों को मारती ला रही थी। एक स्त्री अपने बाल नोचकर बोली, "हाय, मैं तुम्हें चिकनाक र कामियों को फंसाती थी।" दूसरी ने अपनी नंगी छाती चीरकर बताया, "हाय, मैं तुझे हीरे-मोतियों से सजाती थी।"
तीसरी अपनी आंखें उंगलियों से निकालकर कहने लगी, मैंने तुमसे बहुतों को कुदृष्टि से देखा था।"
चौथी अपना मुख नोचकर बोली, "अरे, तेरे सौंदर्य से मैंने बहुतों को ठगा।"
यह देख राम ने कहा, "हे, माता! यहां से चलिए। यह तो देखा नहीं जाता।"
माया ने बताया, "यह सब कुलटा स्त्रियां हैं। कभी यह कामियों का मन मोहती थीं, अब वह रूपमाधुरी कहां है!"
"हे, माता! अब कृपाकर मुझे धर्मराज के निकट ले चलिए। मैं उनसे लक्ष्मण को विनयं पूर्वक मांग लूंगा।"
"राम! यह पुरी असीम है। अच्छा, उत्तर द्वार पर चलो, वहां धर्मराज मिलेंगे।"
राम क्षण-भर में उत्तर द्वार पर पहुंच गए। वहां मधुर वाद्य बज रहे थे, फूल खिल रहे थे, शीतल-मंद-सुगन्ध वायु बह रही थी।
महामाया ने बताया कि इस द्वार पर वे वीर सुख भोगते हैं, जो युद्ध में प्राण त्यागते हैं, "देखो, वह एक वीर आ रहा है।"