नाच रही हैं, गायक गा रहे हैं नायक-नायिकाएं आनन्द क्रीड़ा कर रहे हैं, द्वार-द्वार पर फल-फूलों से गुंथी हुई मालाएं लटक रही हैं नवीन ध्वजाएं फहरा रही हैं। राजपथ में जनस्रोत कल्लोल करता जा रहा है। निद्रादेवी घर-घर घूमती हैं; पर उसकी कोई बात भी नहीं पूछता।"
दूसरी ने पूछा, "क्यों री, क्यों? इस आनन्द-उत्सव का कारण क्या है?"
"अरी, वीरेन्द्र इन्द्रजीत कल राम को मारेगा। लक्ष्मण का वध होगा। राक्षस दल वैरी दल को समुद्र के पार भगा देगा। लंका के वीर विभीषण को बांध लाएंगे। अरी, वड़ा आनन्द होगा। चल, तनिक नगर की बहार तो देख आयें।"
"चलो, सब चलें, इस आनन्द की वेला में इस भाग्यहीन बन्दिनी के आंसू देखने को हम यहां क्यों रहें ?" यह कहकर सब वहां से उठ गई।
सीता आंसू बहाकर रोने लगीं, "हाय! ये सब कैसी निष्ठुर हैं! न जाने विधाता ने क्या विचारा है ? क्या सत्यही कल प्रलय होने वाली है? अरे, ये प्राण फिर किस आशा में अटके हैं ?"
कुछ समय बाद सूरमा चेरी ने आकर कहा, "देवी! दुष्टा चेरियां तुम्हें अकेली छोड़कर महोत्सव देखने चली गयीं? आज्ञा दो तो मैं तुम्हारे ललाट पर सौभाग्य-चिह्न अंकित कर दूं। तुम सौभाग्यवती हो, तुम्हारा यह वेश क्या अच्छा लगता है?"
उसने आंचल से सिन्दूर की डिविया निकालकर सीता की मांग में सिंदूर लगाया, फिर चरण छूकर कहा, "देवी! इस देवांकित शरीर के स्पर्श करने के लिए मुझे क्षमा करो, यह चेरी इन चरणों की चिरदासी है। राक्षसराज ने आपको बहुत कष्ट दिया है।"
सीता आंसू पोंछकर बोली, "बहन! तुम वृथा ही रावण को दोष देती हो। मैंने तो स्वयं ही-आभूषणों को हरण के समय मार्ग में फेंक दिया था। वे ही रघुनाथ को यहां तक ले आये हैं।"
"हे, देवी! बताओ तो सही, रघुकुलमणि तुम्हारे जैसी कुसुमकली को लेकर वन में क्यों आए थे और इस चोर राक्षस ने किस कौशल से तुम्हारे वीर पति और देवर के रहते तुम्हारा हरण किया?"
"अरी, वहन! इस दुखिया की दुःखक या सुनकर क्या करोगी? जैसे ऊंचे वृक्ष में घोंसला बनाकर कबूतर और कबूतरी सुख से रहते हैं। उसी भांति हम गोदावरी के तीर पर पंचवटी में आनन्द से वास करते थे। वीर सौमित्र नित्य कन्द-मूल-फल लाते थे। प्रभु कभी मृगया नहीं करते थे। हिंसा-विरत रहते थे। उनके चरणों के निकट रहकर मैं राजसुख
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