पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/३०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

लक्ष्मण ने प्रार्थना की, "वरदे! मुझ दास को ऐसा वर दीजिए कि मेघनाद का नारा कर सक। आप अन्तर्यामिनी हैं, इस दान के मन की समस्त इच्छानों को पूर्ण करके यजस्वी कीजिए।"

लक्ष्मण नेत्र मूंद प्रणाम करते लगे। तभी गर्जन का शब्द (आ। मन्दिर हिलो लगा, मूर्ति के स्थान पर साक्षात् नायादेवो सहस्र बिजलियों का प्रकाग लिए प्रकट हुई। लक्ष्मण चकाचौंध हो घबरा गए।

माया ने हंसकर कहा "रे, सुमित्रायुत! अभय हो, सदाशिव के आदेश से मैं स्वयं तेरो सहायता को आई हूं। इन्द्र ने तुझे देवास्त्र भेज दिए हैं। उन्हें धारण करके विभीषण के साथ झटपट यज्ञागार में जा। वहां मेवनाद वैश्वानर की पूजा कर रहा है। व्याघ्र की भांनि उस पर सहसा आक्रमण करके मार डाल। मैं माया से तुम दोनों को अदृश्य कर दूंगी, जैते म्यान में तलवार दबी रहती है। जा, निर्भय चला जा। आज सूर्योदय से प्रथम ही राक्षसकुल का सूर्यास्त हो जाएगा।"

यह कह माया लक्ष्मण को आशीर्वाद दे अन्तर्गत हो गई। लक्ष्मण प्रणामकर लौट आए। उषा उदित हो रही थी। राम सब सेनानायकों सहित व्याकुल वैठे थे। तभी लक्ष्मण पुष्पमाला धारण किए आ पहुंचे। राम ने उन्हें गले से लगा लिया।

लक्ष्मण ने सब घटनाएं बताकर कहा, "आपके चरणों के प्रताप से मुझे साक्षात् महामाया ने प्रकट होकर कहा है कि तुम मेघनाद पर सहसा आक्रमण करो। वह जहां यज्ञ कर रहा है, वह स्थान देवी ने बता दिया है। देवी स्वयं मुझे और राक्षसराज विभीषण को अदृश्य कर देंगी। अब प्रभात हो रहा हैं, वि तम्ब का समय नहीं। आप हमें जाने की अनुमति दीजिए।"

भ्राता! जिसे देख कर यमदूत भी व्याकुल होते हैं, उसके सम्मुख अकेला कैसे जाने दूं? जिस विषधर के विष से देव और नर तुरन्त भस्म हो जाते हैं उनके दिन में तुझे मैं कैसे भेज दूं? सीता के उद्धार का कोई प्रयोजन नहीं है। मैंने व्यर्थ ही समुद्र पर पुन बांधा, व्यर्थ ही शत्रु-मित्र के रकत की नदी वहा कर पृथ्वी को रंगा। हाय! भाग्यदोष से मैंने राजपाट, माता-पिता-पशु-बान्धव मत्रको खोया। इस अन्धकारमय जीवन में सीता दीपशिखा थी। दुरादृष्टि ने उसे भी वुझा दिया। अब तुम्हीं मेरी एकमात्र आशा हो, तुम्हें नहीं खोऊंगा। चलो, वन का लौट चलें।"

लक्ष्मण ने दर्प से कहा, "आप इतनी चिन्ता क्यों करते हैं? लंका पर देव कुपित हैं, उनक कोध प्रलय के वादलों के समान उसे घेर रहा है और आपका कटक देव हास्य से उज्वल हो रहा है। आप तुरन्त आज्ञा

२८