पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/२७

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इन्द्र दुःखित होकर ठंडी सांस लेने लगे। शची-मेनका-उर्वशी आदि निकट आकर मौन अधोमुखी खड़ी हो गई। तभी मायादेवी सहसा आ उपस्थित हुई। उनके आने से कक्ष में प्रकाश भर गया। देवेन्द्र सिंहासन त्याग खड़े हो गए। देवी स्वर्णासन पर बैठ गईं।

इन्द्र ने कहा, "माता! अपनी इच्छा मुझ से कहिए।"

"देवराज! मैं लंकापुरी को जाती हूं। देखो, प्रभात हो रहा है। आनन्दमपी उषा उदय-शिखिर पर हंसती हुई निकलेगी। साथ ही लंका का सौभाग्यसूर्य अस्ताचल में डूबेगा। मैं लक्ष्मण को यज्ञागार में ले जाऊंगी और राक्षस दल को मायाजाल में घेर लूंगी, फिर वह निरस्त्र बली देवास्त्रघात से मरेगा; परन्तु जब रावण यह समाचार सुनेगा तो पुत्रशोक में वह विकल होकर यम की भांति युद्ध करेगा। उस समय उससे राम-लक्ष्मण और विभीषण को कौन बचा सकेगा, यह सोच लो?"

"महादेवी! यदि कल मेघनाद मर जाए, तो फिर मैं समस्त सुरसैन्य लेकर संग्राम में लक्ष्मण की रक्षा करने जाऊंगा। आपके चरणप्रताप से मैं रावण से नहीं डरता। आप तो उस दुर्द्धर्ष मेघनाद का घात कीजिए, फिर कल मैं स्वयं भूत न पर जाकर वज्र-प्रहार से राक्षस राज को नष्ट कर दूंगा।"

माया ने हंसकर कहा, "यही ठीक है, तो अब मैं लंका चली। स्वप्नदेवी कहां है?"

स्वप्नदेवी ने उपस्थित होकर कहा, "माता की क्या आज्ञा है?"

"तुम वायु की गति से राम के कटक में जाओ और सुमित्रा के रूप में लक्ष्मण के सिराहने बैठकर उससे कहो कि लंका के उत्तर वन राजि के बीच एक सरोवर है, उसके किनारे पर चण्डी का स्वर्णमय मन्दिर है, तुम वहां स्नान कर विविध पुष्पों से दानव-दमनीया की भक्तिभाव से पूजा करो। उनके प्रसाद से ही तुम दुर्मद मेघनाद का वध कर सकोगे।"

"जो आज्ञा!" कह स्वप्नदेवी विलीन हो गई।

माया ने उठते हुए कहा, "अब मैं भी चली।"

उन के जाने पर इन्द्र ने प्रेम से इन्द्राणी का हाथ पकड़ कर कहा, "चलो, प्रिये! अब सुख से शयन करें।"

उधर राम-शिविर में राम और लक्ष्मण कुशशय्या पर सो रहे थे। सुभट पहरा लगा रहे थे। एकाएक लक्ष्मण चौंककर उठ बैठे और कहने लगे, "मातेश्वरी! एक बार फिर दर्शन दीजिए, मैं आपकी चरण रज मस्तक पर चढ़ाकर मनोकामना पूर्ण करना चाहता हूं। आपने जो सन्देश दिया, क्या वह सत्य है?"

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