पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/२१

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  चित्ररथ ने हंसकर कहा, "रघुवीर! देवगण तो धर्मानुष्ठान से ही प्रसन्न होते हैं। सो आप परम्धर्मिष्ठ हैं। आप देवकुल के प्रिय हैं। महामाया अभया आप पर प्रसन्न हैं।"

"हे, देव! मैं आपको प्रणाम करता हूं।"

"राक्षसों के उपद्रव के भय से देवराज इन्द्र ने मेरे साथ मेघ, आंधी और बिजली भेज दी थी। संसार इस प्रलय के गर्जन-तर्जन से क्षुब्ध हो रहा है। अब मैं जाता हूं। मेरे जाने पर ही इनका वेग शान्त होगा। आपका कल्याण हो।" यह कह चित्ररथ रथ पर बैठ वायुवेग से चल दिए। सब लोग चकित हो देखने लगे।

चार

सूर्य अस्त हो रहा था। मेघनाद के प्रमोद वन में भांति-भांति के फूल खिले थे और फव्वारे चल रहे थे। सखियां इधर-उधर फूल चुनती फिर रही थीं। कुछ मालाएं गूंथ रही थीं। सुलोचना अपने पति मेघनाद के विरह में व्याकुल होस्फटिक शिला पर अधोमुख पड़ी रो रही थी। सखियां विषष्णवदन उसके निकट बैठ बांसुरी, वीणा, मृदंग, बजाकर उसे प्रसन्न करने का विफल प्रयत्न कर रही थीं। सुलोचना ने एक सखी के गले में हाथ डालकर कहा, "देख, सखी! यह अंधेरी रात कालसर्पिणी की भांति मुझे डसने आ रही है। अरी, इस अधिनिशा में अरिन्दम इन्द्रजीत कहां है? अभी आऊंगा, कहकर वह महाबली चला गया। अभी तक नहीं आया। कहो, इतना विलम्ब क्यों हो रहा है?"

सखी ने उत्तर दिया, "प्यारी सखी! मैं नहीं जानती कि वे क्यों अभी तक नहीं आए; किन्तु सखी, चिन्ता न करो। वे राम का नाश करके आ ही रहे होंगे। अरी, जिसका शरीर सुरासुर के शरों से अभेद्य है, उससे कौन युद्ध करेगा? फिर तुम्हारे सतीत्व के प्रभुत्व से तुम्हारे प्राणनाथ पृथ्वी पर अजेय हैं। लो, ये पुष्पमालाएं हमने गूंथी हैं, तुम हंस-हंसकर स्वामी के कंठ में डालना।"

सुलोचना ने सूर्यमुखी का कुम्हलाया फूल देखकर कहा, "अरे पुष्प! सूर्य के बिना तेरी इस निशाकाल में जो दशा हो रही है, वह खूब अनुभव कर रही हूं मैं। अरे, तेरी ही भांति मेरे हृदय में भी इस समय अंधकार ही अंधकार है।"

सखी ने उपे धीरज देते हुए कहा, "प्रिय! इतनी अधीर मत हो।"

"अरी, विच्छेद की इस ज्वाला से तो मेरे चले जाते हैं। मैं जिस

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