पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/१३२

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आचार्य चतुरसेन
राज्याभिषेक

"प्रभो! राक्षसकुल - निधि रावण आपसे यह भिक्षा मांगता है कि आप सात दिन तक वैरभाव त्यागकर सैन्यसहित विश्राम करें। राजा अपने पुत्र की यथाविधि क्रिया करना चाहता है। वीर विपक्षी वीर का सदा सत्कार करते हैं। हे, बली! आपके बाहुबल मे वीरयोनि स्वर्णलंका अब वीर शुन्य हो गयी है। विधाता आपके अनुकूल है और राक्षसकुल विपत्तिग्रस्त है, इसलिए आप रावण का मनोरथ पूर्ण करें।

महाबली रावण दीन-हीन सा हो उठा था पुत्र मेघनाद के मरने के बाद। वह राक्षसराज, जिसकी हुंकार से दिशाएं थर्राती थीं रामभद्र के पास किसी याचक की तरह यह प्रार्थना भिजवाई थी।

आचार्य जी का यह प्रसिद्ध उपन्यास राम द्वारा लंका पर चढ़ाई से प्रारंभ होता है और सीता के भू प्रवेश तक चलता है। इसकी एक-एक पंक्ति, एक-एक दृश्य ऐसा जीवंत है कि पाठक को बरबस लगता है कि वह स्वयं उसी युग में जी रहा है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य चतुरसेन ने ५० वर्षों तक विविध विधाओं में निरंतर लेखन कार्य किया। वह एक लेखक और विचारक ही नहीं, बल्कि चिकित्सा शास्त्री भी थे। अंग्रेजी शासन में उनकी रचनाएं जब्त भी कर ली गई थी। उनके साहित्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य सम्पन्न हो चुके हैं।

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