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अपवाद से सीता-त्याग के दो महत्त्वपूर्ण अंश रामचरित से सम्बन्धित हैं। इन दोनों का महाभारत में बिलकुल वर्णन नहीं है।

जब सीता को विभीषण ने लाकर राम के समक्ष खड़ा किया, तो राम ने कहा, "कल्याणी! युद्ध में शत्रु को हराकर मैंने तुम्हें जीत लिया। आत्म-सम्मान की भावना से प्रेरित होकर मैंने रावण को मार डाला है। मैंने-अपमान का बदला चुकाकर मनुष्य का कर्तव्य पूरा किया। तुम्हारे चरित्र पर लोग संदेह कर रहे हैं, तुम मुझे वैसी ही अप्रिय लग रही हो, जैसे दुखती आंखों में दीप शिखा, इसलिए जहां तुम्हारा जी चाहे चली जाओ। मेरी ओर से तुम्हें अनुज्ञा है। ये इतनी दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं। मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं।"

तब जानकी ने मुख पर छाए आंसुओं को पोंछकर कहा, "हे, वीर! गंवार आदमी जैसे नीच स्त्रियों से बात करते हैं, उसी प्रकार तुम आज मुझसे बात कर रहे हो। तुमने मुझे जैसा समझा है, मैं वैसी नहीं हूं। रावण ने मेरा शरीर जरूर छुआ; पर मैं अवश थी। मेरे हाथ में तो केवल मेरा हृदय था, जो अब भी तुम्हारा है और लंका में मैं कैसे रही, इसके साक्षी तो यह हनुमान हैं। तुम इस वानर से ही मनोभाव प्रकट कर देते, तो मैं क्यों तुम्हारी याद में जीवित रहती, तभी प्राण त्याग देती, फिर तुम्हें इतना भारी यत्न और प्राण-संकट का कष्ट ही न उठाना पड़ता। विवाह के समय पकड़े मेरे हाथ को तुमने नहीं पतियाया। मेरी भक्ति और सदाचार को तुमने उठाकर ताक पर रख दिया। साधारण पुरुष की भांति सारी स्त्री-जाति ही को तुमने पुरस्कृत कर डाला। अरे, लक्ष्मण वीर! मेरे लिए चिता तैयार करो! अब अग्नि-प्रवेश को छोड़ मेरी गति नहीं।"

महाभारत में अग्नि-प्रवेश की कुछ चर्चा नहीं है, बल्कि ऋषियों, देवताओं और पितरों की गवाही को ही काफी समझ लिया गया है। यद्यपि महाभारत रामायण के बाद की है। अवश्य ही यह कथा पीछे से रामायण में जोड़ी गई है। शम्बूक-वध की कथा भी पीछे से जोड़ी गई है।

विष्णु अवतार और राम

विष्णु नाम ऋग्वेद में सूर्य का आया है। यह सूर्य मरीचि अदिति-पुत्र थे। इनके बहुत युद्ध असुरों में हुए। पीछे इन्हें देवता माना जाने लगा। ऋग्वेद में इन्द्र के बाद विष्णु का ही अधिक मान है। ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ तथा तैत्तिरीय आरण्यक में विष्णु देवमण्डल में गण्यमान्य पुरुष हैं। महाभारत विष्णु को परमात्मा, नारायण कहता है, यद्यपि विष्णु के मन्दिर कम हैं। शेषशायी विष्णु भुवनेश्वर, जगन्नाथपुरी तथा खजुराहो में हैं।

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