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यणकाल में नट नर्तक उत्सवों पर नाच-गाकर कथा-वार्ता सुनाते थे। संभव यही प्रतीत होता है कि ऐसे ही किन्हीं 'कुशीलव' (नटों) ने राम के यज्ञ में सीता-व्यथा की कथा सुनाई हो; परन्तु वह कथा वाल्मीकि कृत नहीं हो सकती। यदि वह कोई कथा सुनाई गई थी, तो वह अब नष्ट हो चुकी तथा रामकथा का मूलाधार वही कथा होगी, जिसे सम्भवतः वाल्मीकि ने देखा हो या उसके सम्बन्ध में कुछ सुना हो।

राम : एक महान् सांस्कृतिक पुरुष

राम एक धीर-वीर-उदात्त और कर्तव्यनिष्ठ पुरुष थे। उन्होंने राज-त्याग तथा पिता की आज्ञा मानकर जो यश-संचय किया, वह तो असाधारण था ही; परन्तु उनका महत्सांस्कृतिक कार्य रावण-वध और राक्षस-वंश की समाप्ति थी।

लंका बड़ी दुर्द्धर्ष और सम्पन्न पुरी थी। उसके चार द्वार थे, जिनपर उपल यन्त्र (पत्थर फेंकने के यन्त्र) लगे थे। किले के चारों ओर जलचर सेवित खाई थी। अगाध यन्त्र द्वारा जल चढ़ाने से शत्रु सेना डूब सकती थी, ऐसे राक्षसराज रावण को आमूल नष्ट करना आसान न था। राम से प्रथम पांचाल नरेश दिवोदास और दशरथ ने तिमिध्वज शम्बर के सौ किले तोड़कर उसको मार डाला था। दिवोदास के भतीजे सुदास ने अनार्य वर्चिन को मार और भेदादि महासेनानायकों को समूल नष्ट कर भारत में अनार्य बल तोड़ दिया। अब राम ने रावण को मार भारत के दक्षिणांचल ही को नहीं, मेडागास्कर से आस्ट्रेलिया तक के समस्त द्वीप समूहों और समुद्र तटों को अनार्य प्रभाव से मुक्त कर दिया।

इस तरह शम्बर, वर्चिन और रावण का निधन होने से पम्पा, मलय, महेन्द्र, लंका और अफ्रीका तक आर्यप्रभाव हो गया। अगस्त्य ऋषि प्रथम ही दक्षिण में आर्य उपनिवेश स्थापित कर चुके थे। अब राम के द्वारा यह महत्कर्म हुआ, जिसमें राम का यश दिग्दिगन्त तक फैल गया। वाल्मीकि ने इसी से तो कहा है :

यावत्स्थास्यतिगिरयः सरितश्चमहीतले।
तावद्रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति।।

रामायण के अतिरिक्त महाभारत, ऋग्वेद, ब्राह्मण तथा पुराणों में तो रामवर्णन आया ही है, संस्कृत साहित्य में भी माघ, कालिदास, भवभूति, राजशेखर, दामोदर मिश्र आदि ने रामकथा का आश्रय ले लेखनी धन्य की है।

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